”प्रतिस्पर्धा ”
जिस रफ्तार से इंसान ने प्रकृति का ह्रास करना शुरू कर दिया था , प्रकृति को भी अपना परिचय देना आवश्यक लगा और हो गई शुरू प्रतिस्पर्धा।
भाई ज़माना ही प्रतिस्पर्धा का है फिर चाहे इंसान इंसान के बीच की बात हो या फिर इंसान का मुकाबला किसी और जीव से ही क्यों न हो। कोरोना भी अपने किस्म का एक जीव ही है। या यूं कहें कि परजीवी है और प्रकृति का हिस्सा है और जीवों की तरह प्रतिस्पर्धा की ताक़त रखता है। उसके सूक्ष्म आकार पे जाने की भूल इंसान को बहुत भारी पड़ सकती है। इंसान के अस्तित्व पर भी बात आ सकती है।
ये महज़ एक इत्तेफ़क है कि इंसान का पाला ऐसे कम ही जीवों से पड़ा है जो उस पर भारी पड़े हों। यही कारण रहा कि इंसान अपनी मनमानियां करता चला गया और ख़ुद का ही दुश्मन बन बैठा। प्रकृति ने तो सिर्फ अपनी सूझबूझ से इंसान को उसके घुटने पे ला दिया वो भी एक छोटे से समय अंतराल के भीतर। वर्तमान समय में प्रकृति ने जीवों में संतुलन बनाए रखने का बीड़ा अपने सर लिया है। इस हाहाकार में इंसानों के दुःख को इतना बड़ा दिखाया जा रहा है किंतु उन जीवों का क्या जो अपने अस्तित्व की लड़ाई इंसान के स्वार्थ के रहते हार गए। उनका हाहाकार किसी इंसान को नहीं सुनाई दिया।
अब जब प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है तब इंसान को उसके बौनेपन का एहसास कुछ हद तक तो होने लगा होगा। अगर अभी भी नहीं तब ये प्रतिस्पर्धा बहुत लंबे समय तक नहीं चलेगी। इंसान को जितनी जल्दी हो सके प्रकृति और अन्य जीवों के साथ संतुलन में जीवन यापन करना सीख लेना चाहिए।
प्रकृति से प्रतिस्पर्धा कहीं ज्यादा महंगी न पड़ जाय।
विवेक जोशी ”जोश”