प्रतिमानों का विध्वंस अधिक नहीं सहो रे !
प्रतिमानों का विध्वंस अधिक नहीं सहो रे !
हे भारत ! प्रतिमानों का विध्वंस अधिक नहीं सहो रे ,
भग्न संस्कृतियों के ध्वंसावशेष में , प्राण विशेष भरो रे ;
शौर्य विग्रहों के प्रशस्त मान्य , संचार-सार- धार गहो रे ;
दुर्दमनीय दुर्दांत दुराग्रहों को दुर्मुख दूरस्थ करो रे !
जीवनमूल्यों के विध्वंसक दस्युओं में , घोर विषाद भरो रे ,
जीवंत सभ्यता की जटिल जीवटता में चीर आह्लाद धरो रे ;
शुचिता-वीरता के विविध क्रमों में दृढ़ संवाद करो रे ,
सागर सी उत्ताल तरंगों में प्रलयघन नाद भरो रे !
गिरी-गुहा , तटिनी,गह्वर वन , खिन्न प्रकृति संत्रास हरो रे ,
उच्चतम मूल्यों के ह्रास विनास का , आयातित संताप हरो रे ,
शत्रु का मर्दन कर भुजदण्डों से , खण्ड-खण्ड धुसरित करो रे ,
दृढ़ संकल्पी-विश्वासी-वीरव्रती धरणी के ,
अखण्ड संपुरित तत्क्षण करो रे !
ला अप्रतिहत भयानक तांडव नर्तन , वेश विशेष धरो रे ,
भयानक रणचण्डी हुंकारों-वारों में जीवन शेष धरो रे ,
आक्रांत आहत मातृभूमि की भव्यता , शाश्वत लाल ! करो रे ;
क्रूरता के बर्बर आधारों में अग्निस्फुलिंग विकराल भरो रे !
✍? आलोक पाण्डेय
माघ शुक्ल द्वितीया