‘प्रतिदान’
कोमल हृदय करने को रक्षित,
धरना पड़ता है रूप कठोर नग सा भी।
जीवन को जीने को सुखमय ,
लेना पड़ता निष्चय कठिन डग का भी
तूफानों से टकराने को आतुर,
खड़ी प्रकृति धर वेश ऊँची चट्टानों का।
चरणों में अर्पित करने को पादप,
खड़े अंजुली भर पत्र-पुष्प अपने दानों का।
कर त्याग समर्पण कुछ दूजे को,
तब पाओगे बदले में प्रतिदान किसी से।
अर्पण हो पहले बाद ग्रहण हो,
जीवन के दो पहिए हैं गतिमान इसी से।