प्रणु शुक्ला द्वारा सम्पादित बाल नाटक-पुस्तक समीक्षा-मनोज अरोड़ा
बाल नाटक
सम्पा. प्रणु शुक्ला
पृष्ठ – 124
मूल्य – 225/-
बालक जो दृश्य देखते हैं, उन्हीं से सीखते हैं। भले वह घर-आँगन का माहौल हो, पाठशाला, खेलकूद का मैदान या मंच पर देखा या किया गया अभिनय हो। प्रत्येक स्थान का अपना-अपना महत्व है, क्योंकि इन्हीं के द्वारा ही उन्हें बाल्यावस्था में अनुभव हासिल होते हैं। अगर नाटक की बात करें तो बालकों को यही सर्वाधिक अच्छा लगता है, जिनमें वे भूमिका अदा कर स्वयं तो प्रफुल्लित होते ही हैं साथ ही वे बड़ो को भी प्रभावित करते हैं।
गली-मौहल्ले की साफ-सफाई, महापुरुषों के कार्य व उनकी दिनचर्या, स्वतन्त्रता सेनानियों के बलिदान की गाथाएँ, चोर-पुलिस का खेल, मरीज का इलाज, पाठशाला की शिक्षा, अध्यापकों का सत्कार या नेक राह पर चलना आदि। ऐसे नाटकों में बालक बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं और बड़ों की सीख से वे नई कलाओं में पारंगत भी होते हैं।
इन्हीं में से अनेक पहलुओं से सम्बन्धी रखते हैं युवा एवं ऊर्जावान सम्पादक प्रणु शुक्ला द्वारा सम्पादित ‘बाल नाटक।
उक्त पुस्तक में सम्पादक ने कुल नौ नाटकों को सम्मिलित किया है, जिसमें प्रत्येक नाटक में पाँच-सात पात्रों को लेकर शिक्षादायक किरदारों को दर्शाया गया है।
पुस्तक में शामिल ऐसे नाटक हैं, जिन्हें कुछेक बालक थोड़े-से सामान व साधारण वेशभूषा में प्रदर्शित कर सकते हैं, जैसे साधारण मकान में रहने वाला मध्यमवर्गीय परिवार, कुँअर की वेशभूषा में राजकुमार, सफेद कोट में डॉक्टर, वृद्ध की तरह दिखने वाला पुराने समय का वैद्य, भाषण प्रस्तुत करने वाला राजनेता या मंत्री और देश की सेवा करने वाले बहादुर जवान आदि।
प्रणु शुक्ला द्वारा सम्पादित बाल नाटक पुस्तक बालकों को शिक्षादायक सन्देश तो देगी ही साथ ही प्रेरित करने में भी सहायक सिद्ध होगी। इसी कामना के साथ….
मनोज अरोड़ा
(लेखक एवं समीक्षक)
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