प्रणय-निमंत्रण
अयि गौरवशालिनी।
दर्प विश संचालिनी।।
विद्युत प्रगाढ़ता से परिपूर्ण हो कहाँ चली।
अधर सुधा जल पान करा।।
रसातल में कब तक रहूँ यूँही खड़ा ।
मादकता नयनों की छलका तो जरा।
पिपासा नयनों की बूझा तो जरा।
मृगनयनों की कान्ति की चाह।
थी जिसमें प्रेम अथाह ।।
विछोह की वेदना से कब तक तड़पता रहे हृदय ।।
क्या तुझमें लेषमात्र भी प्रेम नहीं ओ निर्दय ।।
अपलक नयनों का अनुराग ।
अविकल बहकर भरता जा रहा मेरी कोमल काया में दाग।
अविलम्ब अपलक कब तक यूँही डटा रहूँ।
प्रेमरुपी नागपाश से कबतक यूँही बचता रहूँ।।