प्रजातंत्र की दिवार पर गस्त
शीर्षक – प्रजातंत्र की दिवार पर गस्त
विधा – व्यंग्य काव्य
परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर राजस्थान
पिन- 332027
मो. 9001321438
गस्त छिपकली की दिवार पर
है लपकती कीट-पंतगों को
चट से जीभ पसार बिजली सी
गटक जाती फिर लपकती
चुपचाप दबे पाँव सरपट दौड़।
प्रजातंत्र की दिवार पर गस्त
मंत्री-संतरी मुँह खोले बिना
गटकेंगे सांसद संसद को
नौकरशाही फिर लपकती
हर रोज प्रजातंत्र के तंत्र को।
खूटें से बंधी भैस काटती चक्कर
खाकर गोबर और मूत्र करेगी बस
नेता लगे करने गुड़ गोबर एक
चुनावी जुमले की खूँटी पर
लटक गया भविष्य देश का।
विवादों के तंत्र में गस्त
छिपकली से नेताओं की
चूस खून संसद से सबका
विकास का गणित बखानते
भूखा है फिर भी पेट प्रजातंत्र का।
मंत्री की शिक्षा लटक रही फाँसी
देश को अब्दुल कलाम देंगे
हिन्दु-मुसलिम फिर लड़ेगे
सवाल जो वोट की पेटी का है
जनाब! सवाल करना ही गुनाह है!
राजनीति का पायलट भी
मुँह बिदकाकर जनता से
नकाब पहन फिर कहेगा
हमने ये किया! वो किया !
पर असल में क्या किया।
गस्त लगाई बस छिपकली
रोजगार और मँहगाई पर
WHO के आँकड़े से फिर
सुधरेगा भूखा पेट सूखी आँत
अब सवाल नहीं वोट दो।