प्रचार – प्रसार
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विधा—- दोहा
रचनायें—-
अंधेपन की लौ जली, फिल्मी चढ़ा बुखार।
उलझी अब की पीढ़ियां, दिखता नहीं सुधार।।१।।
सभी यहाँ विष बेचते, बोलें मधुरिम बोल।
नायक हो या नायिका, सभी बजाते ढोल।।२।।
आज खिलाड़ी भी कई, बेच रहे विषवेल।
मानवता को छल रहे, खेल रहे जी खेल।।३।।
नशा जुआ सब शुद्ध है, कहे ठोक कर ताल।
युवा पीढ़ी फंस रही, फेंक रहे सब जाल।।४।।
मद्य तम्बाकू बीड़ी, बेच रहे सरकार।
मानवता को छल रहे, नाटक से हरबार।।५।।
सर चढ़कर है बोलता, नशा जुये का खेल।
युवा पीढ़ी जल रही, जीवन बनता जेल।।६।।
फैशन के आगोश में, झुलस रहा इंसान।
जन्नत समझे नर्क को, गवां रहा है जान।।७।।
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#घोषणा
मैं [पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’] यह घोषणा करता हूँ कि मेरे द्वारा प्रेषित रचना मौलिक एवं स्वरचित है।
[पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’]
स्थान:- मुसहरवा (मंशानगर), पश्चिमी चम्पारण, बिहार