प्रगतिशील कविता
आइए अब चर्चा करें कुछ दलित के घाव पर,
जकड़ी हुई हैं बेड़ियां आज भी उस पावँ पर,
मेज़ पर अंगूर है व्हिस्की रखी गिलास में,
चर्चा के लिए आ गए खुद्दार कुछ लिबास में,
देना नहीं है चोट अब ओट के बाजार में,
लड़ रहे हैं तो लड़ने दो नोक के औज़ार में,
जब तलक यह जंग और सुनामी होती जायेगी,
तब तलक बेबस मछलियां समुंदर में भागी आयेंगी,
कल का सूरज मेरा हो और चन्द्रमा कैद रख
क़िरदार चाहे कोई हो सब के सब अवैध रख,
रंग आबो हवा में हाथ अपना डाला करो,
जिस्म भी मिल जाय तो नोंच भी डाला करो,
है यहां पर बह रही उस हवा को देखिए,
उत्तेजना के वेग की उस दवा को देखिए,
आज हम सोचा करें बच के कुछ आज़ाद हैं,
मूर्ख कैसे हम बचेंगे जब दंगे और फ़साद हैं,
सोचिये महसूस करिये देश के विकास का,
अस्मत लूटी जा रही हो यदि किसी इतिहास का,
फिर कैसे कह सकते हैं यह वही स्थान है,
विश्व जिसका गौरव करे मेरा हिंदुस्तान है