प्रकृति
चट्टानों की कोख में पला
जन्मा,पला, बढ़ा, बढ़ता गया।
तपती धूप के थपेड़े सहता रहा,
एक पौध, जो संकरे मार्ग से
होता हुआ दिखा व्योम के नीचे,
खुले आकाश और चंद पोषण
ही जिसका सहारा थे,जीवन का,
अस्तित्व बचाने के लिए।
प्रकृति के इस मनोरम उपहार ने,
शायद कभी न सोचा,
हीनता, भेदभाव,दुराव,
अपनों से।
सगे कुटुम्बियों से,
बेहद उदार, आत्मीयता भरे,
विश्वास और मानवीय मूल्यों से
सराबोर होकर,
मानवीय आकर में
गले लगता है।
थोड़ा भी दंभ नहीं,
कठोरता नहीं, शुष्कता नहीं,
जबकि मूल और मातृ रस में,
कूट-कूट कर भरा हुआ है,
कठोरता, जिससे सृजित हुआ।
सच है प्रकृति सदैव
प्रेम का ही
संदेश देती है।
@©मोहन पाण्डेय ” भ्रमर”
हाटा कुशीनगर उत्तर प्रदेश