प्रकृति
डा . अरुण कुमार शास्त्री , एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
प्रकृति *
भाव से भरी हुँ , मैं लेखिका हुँ
कुछ शब्दों से , काव्य रचा करती हुँ
मैं शब्दों को भाव दिया करती हुँ
भाव से भरी हुँ , मैं सृजन काआकार हुँ
कोमल कोमल अंग हैं मेरे लेकिन
सम्पूर्ण पुरुषत्व को अपने
अन्दर वहन करती हूँ
मैं तुलिका से केनवास पर
दृढता से मेहनत कश
कृषक की व्यथा रचती हुँ
सीमा पर देश के रक्षक की
पृष्ठ भूमि में हुंकार हुँ
क्या कोई विकास का पन्ना
क्या कोई इतिहास का वृतान्त
मुझसे या मेरे बिना रचा गया
यदि है तो तो मैं
उसका प्रतिकार करती हुँ
भाव से भरी हुँ , मैं लेखिका हुँ
कुछ शब्दों से , काव्य रचा करती हुँ
मैं शब्दों को भाव दिया करती हुँ
भाव से भरी हुँ , मैं सृजन काआकार हुँ
ममता हुँ ममत्व से भरी हुँ
मैं अपने बच्चों को वीरत्व से भरती हुँ
मुझसे से प्रेरित समाज है सारा
मैं सम्मिलित हो कर उनको
आकार दिया करती हुँ
मैं प्रेम हुँ मैं दया हुँ मैं नीव हुँ
तुम्हरी , मेरे कारण ही ईट गारे
का मकान घर हो जाता है
मेरे कारण ही एक नर
को पिता का दर्जा मिल जाता है
भाव से भरी हुँ , मैं लेखिका हुँ
कुछ शब्दों से , काव्य रचा करती हुँ
मैं शब्दों को भाव दिया करती हुँ
भाव से भरी हुँ , मैं सृजन काआकार हुँ