४) प्रकृति
शकुन्तला का शावक
दीखता नही है
कान्हा का धेनु
रम्भाती नही
वनराज बसेरे से
उजड़े बंजारे बने
गजराज पथिक
शहर के बने हैं ।
चन्दा काजल में
ओझल हुआ सा
राहु कालीख से
हारा हुआ है
भानु का शौर्य कतरता यूँ
काला केतु छाया हुआ है ।
तलैया में गोरा मुखड़ा
दीखता नही
श्रान्त राही को बट की
छाया नहीं
सौरभ-सुरभी
विषैली हुई है
कानन सौतेली
सुहाती नहीं है ।
आँगन की लतीका
पीली पड़ी
तुलसी की ख़ुशबू
फीकी पड़ी
नागफनी-दंत
थोथे हुए
गेंदा झड़ के
ठूंठा हुआ है ।
कहते हैं ज़माना
आगे बढ़ा है
प्रकृति विलखती
यूँ ही खड़ी है ।
डॉ नरेन्द्र कुमार तिवारी
समाधि
पीपल की समाधि,
योगी की समाधि
बेफ़िक्री में डूबा ,
तटस्थ , एकनिष्ठा समाधि !
निशा, नीरवता में खड़ा ,
पत्तियों का झांझर बजाता,
शीतल , सुखद , प्राण-वायु-
प्रसाद ,कण-कण में लुटाता !
विष पान करते ये,
शिव-शम्भु बने हैं
बॉंटें अमृत जगत मे,
विष अनवरत शोधाते !
धरा ऋणि ,और जल
इनपे न्योछावर ,वायु का
झालन,तोरण नीला गगन का,
और क्या ना , इनका किया है !
लगी रहे निरन्तर इनकी समाधि
धुनी अनवरत यूँ चलती रहे बस,
हिलाने की सोच है विध्वंसकारी
कामदेवी कथा किससे छुपी है !
जाएगी हिल धूरि जगत की,
और उलटेगी दिशा सृष्टि की ,
अनाथ,असहाय,जगत बनेगा,
आसन हिला तो इस योगवर का !
नरेन्द्र