प्रकृति से संवाद
हे प्रकृति! ये क्या दिखा रहे हो
मानव से कैसा बदला ले रहे हो
लगा कर उसकी सांसों पर पहरा
उसे घरों में ही कैद कर रहे हो।।
छीन लिया उसने तुमसे बहुत कुछ
इस बात का क्या बदला ले रहे हो
सांस लेने के लिए हवा ही चाहिए
उसके लिए भी आज तड़पा रहे हो।।
उसने अपनी सहूलियत के लिए शायद
तुम्हारा बहुत अंधाधुंध दोहन कर दिया
तभी शायद तुमने उससे ये बदला लिया
सांसों के लिए उसे मोहताज कर दिया।।
वो तो लगा है बस अपना जीवन बचाने में
और तुम अपने ज़ख्मों पर मरहम लगा रहे हो
छीनकर उससे सारी भौतिक सुविधाएं
रोककर उसकी उड़ान को क्या जता रहे हो।।
वो कटे हुए जंगल अगर आज होते
तो इंसान तुम आज ऐसे न बैचैन होते
जो होते जंगल चारों ओर तुम्हारे
तुम भी आज चैन की सांस ले रहे होते।।
अब भी जाग जाओ प्रकृति से ऐसे न खेलो
जितनी जरूरत है बस उतना ही ले लो
नहीं समझे वास्तविकता अगर आज भी
तो इसके और भयानक दुष्प्रभाव झेलो।।