प्रकृति राष्ट्रवाद से अनभिज्ञ
लघुकथा :-
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वह देश के साथ बिलकुल नहीं था,
एक बार के विद्रोह ने ही पोल खोल दी
वह तिलमिला गया,
उसने अब जो भी प्रस्तुतियां दी थी,
ये सब उनके खिलाफ थी,
खुद को हारा हुआ उसे स्वीकार न था,
क्यों की वह एक सीमित विचारधारा पर काम कर रहा था,
वो देश नहीं थी,
उसने वो काम किये जैसा की कोई उम्मीद नहीं करता.
वह खुद ही भयभीत घबराहट को छुपाते गया,
और जोर से शोर मसगुल होता गया.
जैसे जैसे उसे खयाल आया
तब तक …सबकुछ जैसे
कोई जलजला
जल,वायु, धरातल, अग्नि, आकाश जैसे अपने हाथों में लेकर कोई अंजाम दे रहे हो.
अब उनके सामने जैसे कोई ….???
प्रकृति राष्ट्रवाद से अनभिज्ञ रहती है शायद !
अस्तित्व नास्तिक है.
महाभूत अपने धर्म पर कायम.
वे जीव-जन्तु ही है जो.
प्रकृति वा अस्तित्व से सामंजस्य स्थापित कर लेते है.
क्षेत्र कोई भी हो.
मनुष्य सभ्यता/संस्कृति एक जीवनशैली से ज्यादा नहीं हो सकती.
डॉक्टर महेन्द्र सिंह हंस