प्रकृति में पावस
हरियाली की चादर ओढे़ धरती मानो झूम रही थी ,
पावस की फुवारों से मानो भींग रही थी ।
नव पत्र धवल लग रहे थे ,
मानो नव – नव पल्लवित हो रहे थे ।
शीतल मंद पवन चल रही थी ,
भींनी – भींनी सी धरती महक रही थी ।
बहुरंगी पुष्प धरती का श्रृंगार कर रहे थे ,
भिन्न – भिन्न सुगंधों से धरती को महका रहे थे ।
रवि भी मेघों में लुक – छिप रहा था ,
मानों वसुधा संग लुका – छिपी खेल रहा था ।
नदियां भी पानी संग अठखेलियां कर रही थी ,
मानो नींद से जागकर अंगडा़ईयां ले रही थी ।
पर्वत श्रृंखलाऐं हरियाली की चादर ओढे़ खडी़ थी ,
निर्झरों से झरते नीर की झर – झर ध्वनि हो रही थी ।
प्रकृति की गोद विविध बेल बूटों से सज रही थी ,
हरी – भरी धरती भी अब मनोरम लग रही थी ।
कहीं पंक , कहीं पंकज ,
तो कहीं इन्द्रधनुष दिख रहे थे ।
आसमां भी कभी लालिमा ,
कभी काली घटाओं से रंग बदल रहे थे ।
तरुवर नव निर्मल पत्र लिए खिलखिला रहे थे ,
पपीहे भी स्वाति बूंद की आस में मुंह खोल रहे थे ।
खग – मृग स्वच्छंद वातावरण में विचरण कर रहे थे ,
प्रकृति के इस मनोरम दृश्य का आनंद ले रहे थे ।
—- डां. अखिलेश बघेल —-
दतिया ( म. प्र. )