“प्रकृति गीत”
चलो, सुरभि से बात करें कुछ,
भौरों सा गुँजार करें।
नृत्य सीख लें तितली से,
“पियु कहाँ” गीत साकार करें।।
विहग-वृन्द के कलरव से,
सीखें, निर्मल आचार करें।
मीत अगर मिल जाए मन का,
व्यर्थ न फिर तकरार करें।।
कलियों से मुस्कान सीख लेँ,
सरसों सा श्रृंगार करें।
अमराई की छाया अप्रतिम,
गर्मी भी स्वीकार करें।।
चीँटी, मधुमक्खियों, सदृश,
सरिता-श्रम, अँगीकार करें।
बारिश मेँ तन-मन, धो लेँ,
हरितिमा बढ़े, सहकार करें।।
इन्द्र धनुष के रँग भर लें कुछ,
नीरसता पर वार करें।
जीवन मृदुल कहानी बनकर,
उभरे, यही विचार करें।।
नीलगगन की छवि मनहारी,
कुछ तो नज़रें चार करें।
किन्तु बाज भी उड़ते,
पल मेँ जीत, ध्वस्त कर, हार करें।।
वीर भोग्या वसुंधरा,
योद्धाओं का सत्कार करें।
घृणा, द्वेष, कुँठा, कुतर्क पर,
निश्चित, वज्र-प्रहार करें।
सागर सी गहराई हो,
सम्यक निर्णय, हर बार करें।
पर्वत सा हो दृढ़ निश्चय,
करुणाकर सा व्यवहार करें।।
सूर्य ऊर्जा देता सब को,
भेदभाव पर वार करें।
चाँद किन्तु शीतलता देता,
ग्रहण प्रकृति का सार करें।।
शोषित, वँचित, पीड़ित मन मेंं,
“आशा” का सँचार करें।
प्रेम सभी से करें, कलुषता का,
भरसक प्रतिकार करें।।
रास रचाएँ कान्हा जैसा,
राधा सी मनुहार करें।
दिव्य रूप देखें ईश्वर का,
धन्यवाद, साभार करें..!
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