प्रकृति कहे पुकार के
प्रकृति कहे पुकार के
आओ ना,मिलकर आत्ममंथन करते हैं,
मैली हो गई प्रकृति को फिर चंदन करते हैं।
ये काल है विशाल विपदा का,
आओ ना मिलकर हम चिंतन करते हैं।
जब जब प्रकृति ने पुकारा हमको
बधिर हो चले हम ।
सुन ना पाए प्रकृति का क्रंदन,
निरंतर करते रहे नियमों का उल्लंघन ,
तोड़ते रहे क्षण-क्षण मन प्रकृति का,
आभास ना था उसको मनुष्य की लोभी प्रवत्ति का,
क्रोध की ज्वाला अब अशांत हो चली है,
देखो ना प्रकृति अब लहूलुहान हो चली है,
प्रहार किया है उसने मनुष्य के व्यक्तित्व पर,
इस सजीव संसार के अस्तित्व पर, पाठ पढ़ाया है आत्मरक्षा का,
गहन विषय है ये चरचा का,
इस विचलित समय से कुछ सीखते हैं,
प्रकृति के निवेदन को ध्यान से सुनते हैं-
जीवन की अमूल्यता का सम्मान करो,
यूँ ना उपलब्धियों पर गुमान करो,
भेजो तुम आकाश में नव उपग्रह
लेकिन शशांक का भी गुणगान करो।
मेरे तन का श्रृंगार करो,
वनों का ना संहार करो,
नित नित वृक्षों का रोपण करो,
पर्यावरण से दूर प्रदूषण करो।
जलाशयों में जल को बहने दो,
शुद्ध हवा को कण-कण में रहने दो,
ऊंचा रहने दो पर्वतों की ऊंचाई को
प्राकृतिक संसाधनों को समुचित रहने दो।
पंछियो को नीड़ों में चहकने दो।
पशुओं को निर्भीक विचरण करने दो,
सबको अधिकार है जीवनयापन का,
सदाचरण की सभ्यता का प्रचलन रहने दो।
आओ मिलकर लें शपथ,
अपने कर कमलों से हम पृथ्वी का श्रृंगार करेंगे,
जल,थल,वायु,अग्नि,आकाश का सत्कार करेंगे,
जीवनदायिनी है हरी-भरी वसुंधरा हमारी,
हम प्रत्येक क्षण जीवन का निर्माण करेंगे।
आओ ना,मन ही मन इस विचार का मनन करते हैं,
ईश्वर की सुकृति का अभिनंदन करते हैं,
जियो और जीने दो को जीवन का मूलमंत्र मानकर,
आओ विनम्रता से हम प्रकृति का वंदन करते हैं।
सोनल निर्मल नमिता