प्रकृति और मां
प्रकृति और मां
जब से आई इक बच्ची कोख में मेरे
मन में प्रकृति की आवाज़ उठी
बस अब तू धीरज धरना, तू मेरे जैसे मां बनी।
धीरे धीरे मेरे भीतर उसके पद्चापों की आवाज हुई
मेरी ममता घने पेड़ों के नीचे की जैसी छांव हुई
जैसे मधुबन में प्रेम की बूंदों की बरसात हुई।
फिर वह दिन भी आया जब
नन्ही बच्ची की घर में किलकार हुई
मैं हवा हुई, नए प्राणों की सांस हुई
मुझे लगा मैं प्रकृति रूप का इक छोटा सा विस्तार हुई।
जब उसे बड़े प्रेम से मैंने अपना दूध पिलाया
मेरी ममता फल फूल हुई, धन धान हुई
अन्नपूर्णा सी साकार हुई।
जब उसने पहली बार मुझे मां कहकर बुलाया
मुझे लगा, मैं पक्षियों की आवाज हुई
मैं गीत हुई, गुनगान हुई
सागर की लहरों और वेदों के मत्रों सी गुंजायमान हुई।
जिस दिन उसने पग धरे धरती पर
मैं धरा हुई, पर्वत और पठार हुई
मैं पुण्य हुई, पावन हुई
मुझे लगा मैं पृथ्वी स्वरूप और आकार हुई।
जब वह शिक्षा पाकर अपने पिता जैसी सक्षम हुई
मैं पुलकित फूलों का बाग हुई, खेत और खलिहान हुई
मैं दृश्य हुई, दृष्टि हुई
मुझे लगा मैं सकल ब्रह्म का ज्ञान हुई।