“क्यों ना देखूँ ख़्वाब नया”
“क्यों ना देखूँ ख्वाब नया”
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मरुधर से निर्मम जीवन में
अंगारों के पार गया,
नयनों से नीर बहा मेरे
क्यों ना देखूँ ख्वाब नया।
नयन झरोखे मधुर स्वप्न सा
सुखद सलौना प्यार पला,
अरमानों की सेज सजा कर
दिल को मेरे खूब छला।
आशा की बाती से मैंने
श्रम स्वेद दीप जला दिया,
अपमानों की तीक्ष्ण वृष्टि ने
रौशन दीपक बुझा दिया।
कपटी लोगों के तानों ने
मन का मंदिर भेद दिया,
चीत्कार किया इक हूक उठी
उर का दामन छेद दिया।
मरुधर में प्यासा जब तड़पा
लू ने आकर घेर लिया,
उम्मीद लगाई अपनों से
अपनों ने मुँह फेर लिया।
बचपन में रो तो लेता था
अब मैं पागल कहलाऊँ,
स्वादिष्ट व्यंजनों को तरसूँ
बासी रोटी मैं खाऊँ।
बीती दुखदाई यादें भी
शूल बनीं अब चुभती हैं,
पथरीली आँखें राह तकें
पलकें बोझिल लगती हैं।
जी चाहे जीवन की स्याही
बारिश में धो डालूँ मैं,
तोड़ दिवारें नफ़रत की फिर
प्यार किसी का पा लूँ मैं।
बना परिंदा भर उड़ान मैं
नीरसता को भूल गया,
पंख लगाए उम्मीदों के
क्यों ना देखूँ ख़्वाब नया।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
संपादिका-साहित्य धरोहर
महमूरगंज, वाराणसी (मो.-9839664017)