प्यार
पाजाऊँ जो प्यार दीप का
विष का प्याला हँसकर पीलूँ
सहरा में भी खुलकर जीलूँ
पाजाऊँ जो प्यार दीप का
अँधियारी काली रातों में ।
बना सहेली पीड़ाओं को
घूमूँ ज्वाला के उपवन में
दर्द बसाऊँ ऐसे उर में
जैसे बिजली नीले घन में
आँसू करलूँ फूल नयन के
गूँथूं उनसे माला गल की
हिचकी की हर इक आहत में
गूँज सुनूँ मैं किसी ग़ज़ल की
आहों को मैं सरगम करलूँ
घावों को मैं मरहम करलूँ
पाजाऊँ जो किसी कली का
इक हाथ कुँवारा हाथों में।
रखदूँ अपने प्राण कमल को
अंगारों की वधशाला में
पीजाऊँ मैं अगन जगत की
नीर घोलकर ज्यों हाला में
लिखूँ कहानी अग्नि वक्ष पर
आँखों के निर्मल पानी से
जिल्द चढ़ाऊँ उस पर अपने
यौवन की चूनर धानी से
तड़प जिया का गीत बनालूँ
टीस मधुर संगीत बनालूँ
पाजाऊँ जो दीन वदन को
हँसते गाते अभिजातों में ।
बिक जाऊँ लहरों के हाथों
पहुँचाएँ जो नौका तट पर
बनूँ निवाला बाज चोंच का
जो नज़र न डाले घूँघट पर
होकर दास रहूँ खंजर का
जो रक्त किसी का ना पीए
पूजा करूँ उम्रभर उसकी
जो दर्द पराया ले जीए
काँटों को मैं मधुबन मानूँ
चाँटों को मैं जीवन जानूँ
पाजाऊँ जो कहीं टहलते
करुणा को जलजातों में ।
अशोक दीप
जयपुर