प्यार के बीज बोए थे हमने
प्यार के बीज बोए थे हमने
आँखों में कितने ख़्वाब संजोए थे हमने।
एक धागे में अनेक मोती पिरोए थे हमने ।।
कैसे और क्यूँ नफ़रत फैल गई है जग में।
इन आँखों को आँसुओं से भिगोए थे हमने ।।
अब तो लफ्जों के खेल का नाम है मोहब्बत।
अपनों को नफ़रत की आग में खोए थे हमने ।।
ज़माने का नज़रिया बदल गया अचानक क्यूँ।
ऐसे ज़माने के हालात पर आज रोए थे हमने ।।
किस तरह कलह बढ़ गई है जमाने में अब
सब के दिलों में प्यार के बीज बोए थे हमने ।।
चार दिन की ज़िंदगी में, कितने बुने ख़्वाब।
ताउम्र ज़िम्मेदारियों का वज़न ढोए थे हमने।।
लुत्फ़ उठाये जीवन के चार दिन नीर हमने।
अपने ही दामन में लगे दाग़ धोए थे हमने।।
संतोष भावरकर “नीर”
सिंगोड़ी,छिंदवाड़ा