पैरों तले मां के ये जन्नत भी बनाई है
ग़ज़ल
बह्र-हज़ज मुसम्मन सालिम
वज़्न-1222 1222 1222 1222
करम तेरा ख़ुदा हम पर ये तेरी ही ख़ुदाई है।
तेरा दीदार नामुमकिन तो तूने मांँ बनाई है।।
बनाया है अगर वालिद को दरवाजा जो जन्नत का।
मगर पैरों तले मांँ के ये जन्नत भी बनाई है।।
कभी रातों में जब भी जाग कर मैं रोने लगता था।
तभी उठकर तुरत मांँ ने मुझे लोरी सुनाई है।।
मैं इतना खूबसूरत तो नही पर मांँ समझती है।
हुआ बीमार तो कहती नज़र किसने लगाई है।।
मंगाई एक रोटी थी वो दो लेकर चली आई।
मेरी मांँ तो अभी तक भी न गिनती सीख पाई है।।
लगा कमजोर जो भाई तू उसके पास जा बैठी।
मैं प्यारा था बहुत लेकिन तू उसके हिस्से आई है।।
बड़ी ही दूर है “अनीश” तेरे शहरे मक्का से।
मुकम्मल हो गया अब हज मेरा मांँ मुस्कराई है।।
Anish shah
दीदार=दर्शन। वालिद=पिता। जन्नत=स्वर्ग। मुकक्मल=पूर्ण। हज= मक्का का तीर्थ।