पैदायशी बुजुर्ग ।
कौन आया है ? सुघरा के घर आकर पूॅछते ही , सौम्या की सास ने गोद में बहुत ही ढाॅक-ढूॅक कर नवजात शिशु को सीने से चिपकाकर लाते हुए कहा कि “यही नया मेहमान आया है ” तो सुघरा ऑखें फाड़-फाड़ कर देखती जा रही थी और कहती जा रही थी कि बाबा तो बहुत ही सुन्दर हैं ,और पूॅछा, हमारे बाबा का क्या नाम रखेगी आजी जी (दादीजी) ! तो उत्तर में सिर्फ “कुछ बड़ा हो जाय तो” मिला ।कुछ बड़ा होते ही उसका नाम सरजू रखा गया, तो सुघरा दुलार से सरजू बाबा कहने लगी थी और सरजू भी बिना कुछ सोचे समझे मानों नयी दुनिया की नई भाषा सुन खिल-खिलाकर हॅस देता, तो उसकी दादी व सुघरा के मुॅह खुशी में फटे ही रह जाते थे । सुघरा की बहुएॅ आयीं वो भी बचपन में ही उसे बाबा ही कहती तथा बहुओं के बच्चे हुए वो भी उसे बाबा ही कहते।
उच्च शिक्षा हेतु सरजू शहर गया तो जाड़े में साथी लोग भी कभी-कभार टोपी में उसे अंकल बोल देते लेकिन पहचानने के बाद साॅरी बोल किनारे हो जाते थे। एक दिन सरजू बस यात्रा कर रहा था तो संयोग से कंडक्टर ने भी उससे पूॅछा ” अंकल कहाँ का टिकट दूॅ ?” लेकिन बाद में भाईसाहेब पर हो लिया था ।
सरजू को नौकरी मिली ! तो जिस भी सहकर्मी के घर जाता, उसे कभी “भाभीजी” कहने का मौका नहीं मिला, भले ही सामने वाले की उम्र ज्यादा ही क्यों न रही हो।
सरजू रिटायर हो घर आया और अबतक सुघरा और उसकी बहुएॅ चल बसी थीं तथा उसके पोते-पोती जो लगभग हम उम्र थे । बाबा – बाबा कह उसका ध्यान रखते थे और आज सरजू जब इस संसार को छोड़ चुका था, तो आत्मीय रूप में अपनी मृत काया के पास खड़े , बढउम्र बच्चों के मुॅह से निकलते यही शब्द कि ” बाबा, बहुत अच्छे थे” सुन अश्रुपूर्ण नयनों से स्वर्ग सिधार लिया । और यही सोचता चला जा रहा था कि ” काश ! वह पैदायशी बुजुर्ग न होता तो शायद जीवन में किसी को भाभी कहने से वंचित न होता,और कभी छोटा भाई भी बन सकता ।” लेकिन इस स्वार्थी दुनिया ने सदैव उसे ‘बड़ा’ बनाए रख ‘दोहन’ ही किया था , तथा स्वयं को आजीवन देवर, देवरानी और भतीजा ही बनाये रही !