*पैगाम*
“पैगाम”
बहुत दिनों बाद एक कागा मुंडेर पे बैठे हुए ,
किसी के आने का पैगाम लेकर आया है।
चिठ्ठी का जमाना बदल गया आज इंटरनेट से संदेश पहुंचाया है।
कुछ हमारी सुनते कुछ अपनी कहते हुए ,
जीवन का यही नया अंदाज नजर आया है।
कागा छत पर बैठे हुए कोई पैगाम लेके आया है….! !
पुराने जमाने में जब छत पे कागा बोले तो लगता ,
आज सुबह से शायद घर पर कोई मेहमान आने वाला है।
नजर न आये कोई तो कहे यूँ ही कागा चिल्लाए जा रहा ,
शायद पितृ पक्ष से कोई पितर बन ग्रास खाने आया है।
कागा छत पर बैठे कोई पैगाम लेके आया है….! !
नई दिशा से उम्मीद की किरणों का उजाला देखते हुए ,
नया सबेरा नई आशाओं से जीवन ज्योति जलाया है।
चिठ्ठी पत्रों का सिलसिला थमने लगा ,
नई पीढ़ी नए सिरे से हौसले बुलंद हो चले है।
कागा छत पर बैठे हुए कोई पैगाम लेके आया है….! !
कागा की बोली सुनकर माँ द्वार पर इंतजार करती ,
नजरें गड़ाए देख रही है शायद कोई मेरा अपना आने वाला है।
राह तकती कोई न आये कागा को बोलती झूठ बोल रहा है।
ऐसे ही न जाने क्यों रोज मुंडेर पे बैठे हुए ,
आवाजें निकलता पितृ पक्ष के खाना खाकर फिर वो उड़ जाता है।
सासु माँ कहती वो शायद कोई पितृ पक्ष में खाने दर्शन देने कागा छत पर रोज आ जाता है।
कागा के दर्शन दुर्लभ हो रहे हमें मिलकर उसे बचाना है।
शशिकला व्यास✍️