पैकेज
सुबह का वक्त था। एक महानगर के एक घर में मनीष अपने लानॅ में बैठे अपने पडोसी सुरेंद्र चौबे से बातें कर रहे थे।सुरेंद्र चौबे जी सुबह की सैर से लौटते हुए मनीष प्रसाद जी के पास कभी कभी बैठ जाया करते थे। अचानक मनीष प्रसाद ने अपने बेटे को आवाज दी, ” अरे बेटा जरा एक गिलास पानी तो दे दो।”
“पापा जी आप देख नही रहे मुझे आफिस के लिए देर हो रही है और पिंकी भी आफिस के लिए तैयार हो रही है। मेड बच्चों के लिए लंच पैक कर रही है। स्कूल की बस आने वाली है। थोडा रूको मेड दे जायेगी पानी।” उनके बेटे सिद्धार्थ का उत्तर आया। यह सब सुनना था कि सुरेंद्र चौबे जी बोल पडे,”भाई साहब मैं कल ही अपने दामाद को घर से होकर आया हूँ। क्या बताऊँ वहाँ भी सब बिजी हैं। किसी के पास टाइम ही नही है किसी को कुछ देने के लिए। सब नौकरी के चक्कर में ऐसे उलझे हैं कि अपने बुजुर्गों का तो दूर अपने बीवी बच्चों का भी दूर अपना भी ठीक से ख्याल नही रख पाते। अच्छा पैकेज लेने के चक्कर में सारा समय नौकरी में ही चला जाता है। सालाना इनकम ही हाथ में आती है जिससे जेब तो भर जाती है पर आदमी रहता है हमेशा खाली। उसके पास न टाइम होता है और न किसी की चिंता।”
मुझे माफ करना सुरेंद्र जी मैं ही आपको सलाह देता था कि शादी केवल ‘पैकेज’ देखकर ही करनी चाहिए। रिश्ते के लिए सबसे जरूरी चीज यही है। बहु ढूंढनी हो तो पैकेज दामाद ढूंढना हो तो पैकेज। ये पैकेज न जाने हमें कहाँ लेकर जायेगा। ये हमारा ही सामान पैक करवा कर छोडेगा।” यह कहते हुए मनीष प्रसाद की आखों में पश्चात्ताप के आसूं आ गये। और सुरेन्द्र जी सोच रहे थे कि काश यह बात सब लोग समझ जाये तो कितना अच्छा हो।
अशोक छाबडा
17 अक्तूबर 2016