पेड़ों के व्यंग्य बाण
क्यों ! अब मालूम पड़ी हमारी कीमत,
जब तुम्हें प्राण वायु की हुई किल्लत।
कितनी की हमने याचना,और दी दुहाई,
मगर तुमने हमारी एक ना सुनी दुहाई ।
हमने लाखों बार कहा मत काटो हमें,
हम तो इस धरती के लिए ही हैं जन्में ।
हम मिट्टी का क्षरण रोकते,वर्षा भी करते,
और समस्त प्राणियों को प्राण वायु है देते।
हम फल-फूल देते और असंख्य औषधियां भी,
हमारा ऋण तुम चूका नहीं सकते मर कर भी।
तुम्हारा जीवन से मरण तक हमपर निर्भर है।
फिर भी जानें क्यों तुम्हें हमसे क्या बैर है ?
धरती पर हमारे ना होने की कल्पना तो करो,
अपनी नहीं तो अपनी संतति का विचार करो ।
देखना! पैरों तले जमीन खिसक जायेगी तुम्हारे,
अभिमान की सारी धूल उतर जायेगी तुम्हारे।
अभिमान तो तुम्हारा अब भी टूटना चाहिए था,
प्रकृति असंतुलन का इशारा समझना चाहिए था ।
तुम बदलते मौसम की देते हो क्यों दुहाई।
जबकि यह सारी आग है तुम्हारी लगाई हुई ।
यह जो आफत के रूप में महामारी आई है ,
यह भी कहीं तुमने खुद ही तो नहीं बुलाई है !
तुम दर दर प्राण वायु के लिए जो भटक रहे हो ,
अपनी ही करनी का ही तो फल भुगत रहे हो ।
अब भी समय है होश में आना है तो आ जाओ ।
धरती पर जायदा से जायदा हमारा रोपण करो ।