पूस की रात
बहुत पुरानी बात है ,
पूस की इक रात है ।
ठंड से हड्डियां गल रही थी ,
रात बर्फ में बदल रही थी ।
हल्कू एक किसान था ,
टूटा फूटा मकान था ।
करनी खेत की रखवाली ,
जेब पैसे से थी खाली ।
पास में थे रुपए तीन ,
कर्जदार ले गया छीन ।
खेत पहरेदारी को चलता रहा ,
दीनता के भार से दबता रहा ।
सोचा नया कम्बल लेंगे ,
ग़रीबी ने दिखाये ठेंगे।
रात में ठंड ने हरा दिया ,
गहरी नींद में सुला दिया ।
जबरा खेत में भौकता रहा ,
हल्कू बाग में आग तापता रहा।
नीलगाय फसल बर्बाद कर दिये,
खेत पहरेदारी से आजाद कर दिये ।
परिश्रम के स्वभाव में जीता है ,
किसान अभाव में जीता है ।
मौसम की मार भूला रहता है ,
क़र्ज़ और पसीने में डूबा रहता है ।
नूर फातिमा खातून नूरी
जिला -कुशीनगर