पूस की ठंडी रात में
पूस की ठंडी रात में, बिना लिहाफ़ के भटक रहा।
नील गगन में चाँद बावरा, किसके विरह में सुबक रहा।
उतर के नदिया के पानी में, छुप-छुप के अश्रु बहाता है।
बिछड़ के अपनी प्राणप्रिया से, रोये-रोये आधा हो जाता है।
किसके रूप की सुंदरता, उसके मन को लुभाई है।
किसने चाँद के हृदय में, प्रीत की अगन लगाई है।
एक निर्मोही चला गया, उसे अकेला छोड़ कर।
वो कैसे चैन से सो जाए, बादल की चादर ओढ़ कर।
त्रिशिका श्रीवास्तव धरा
कानपुर (उत्तर प्रदेश)