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31 Mar 2024 · 8 min read

पूर्वोत्तर का दर्द ( कहानी संग्रह) समीक्षा

समीक्ष्य कृति: पूर्वोत्तर का दर्द ( कहानी संग्रह)
लेखक : चितरंजन लाल भारती
प्रकाशक: यशराज पब्लिकेशन, पटना-04
मूल्य: ₹ 400/ सजिल्द
पूर्वोत्तर का दर्द: कथ्य का नया आस्वाद
आज़ादी के पश्चात दशकों तक भारत के पूर्वोत्तर के राज्य शेष भारत के लोगों के लिए एक रहस्यमयी दुनिया की तरह रहे हैं। यहाँ के लोग राष्ट्र की मुख्य धारा से दूर रहे। परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में अनेकानेक समस्याएँ मुँह बाए खड़ी दिखाई देने लगीं। परंतु इस क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिए सरकार और स्थानीय प्रशासन के द्वारा ठोस कदम नहीं उठाए गए। इतना ही नहीं देश के नामचीन साहित्यकारों ने भी इस क्षेत्र के लोगों की विशेष सुधि नहीं ली। अलगाववाद और विस्थापन का दर्द झेलते पूर्वोत्तर के लोगों का दर्द महसूस करते हुए सुप्रतिष्ठित साहित्यकार चितरंजन भारती जी ने देश और समाज को उस क्षेत्र के लोगों का दुख-दर्द सामने लाने का साहसिक प्रयास अपने कहानी संग्रह ‘ पूर्वोत्तर का दर्द ‘ के माध्यम से की। वैसे इस संग्रह की अधिकांश कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। इस संग्रह में कुल ग्यारह कहानियाँ हैं जो पूर्वोत्तर के लोगों की अलग-अलग समस्याओं से बेबाकी के साथ पाठकों को रूबरू कराती हैं। पूर्वोत्तर का दर्द, घर की ओर, पेंडुलम, लौट आओ, मत्स्य न्याय, आत्मसमर्पण, फिर भी भय, पोस्टर, अंत ,नीव का पत्थर और विजिटिंग कार्ड से गुजरते हुए पाठक न केवल पूर्वोत्तर के लोगों की समस्याओं और उनके दर्द से परिचित होता है अपितु वहाँ के लोगों की जिजीविषा और जीवटता को भी समझ पाता है।
इस संग्रह की पहली कहानी है ‘पूर्वोत्तर का दर्द ‘ जिसका नायक मंगल सेना की भर्ती में असफल होने के कारण भटक जाता है और अलगाववादियों के चंगुल में फंस जाता है और देश के विरुद्ध हथियार उठाने के लिए तैयार हो जाता है। वह कहता है “मैं इसके लिए तैयार हूँ,मंगल उत्साह में भरकर बोला,” आखिर मैं पढ़-लिखकर भी बेरोजगार ही हूँ। इसलिए अब अपनी असमिया जाति और देश के लिए कुछ न कुछ क्यों न कर डालूँ।” सेना में भर्ती न हो पाने के कारण उसके अंदर आक्रोश पनपता है और वह देश के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए अपनों को ही नुकसान पहुँचाने में लग जाता है। जब वह उन अलगाववादियों के शिविर में प्रशिक्षण के लिए जाता है तो उसे पता चलता है कि यहाँ पर तो विदेशी लोग भी हैं। ” प्रशिक्षण केंद्र से संबंधित सारे लोग एक खास देश के थे, जिनसे वह यानी मंगल अब तक घृणा करता आया था।” इस कथन से स्पष्ट है कि देश की आंतरिक समस्याओं का फायदा उठाकर असंतुष्ट युवा पीढ़ी को भड़काकर हमारे पड़ोसी, देश को अस्थिर करने की कोशिश में लगे रहते हैं। कहानी के अंत में मंगल को इस बात का अहसास हो जाता है कि वह ग़लत कर रहा है और वह प्रशिक्षण शिविर से किसी तरह भागकर अपने घर वापस आ जाता है।
‘घर की ओर’ एक ऐसी कहानी है जो अलगाववादियों के साथ जंगलों और पहाड़ियों के बीच भटकते युवक प्रद्युम्न के मन में हिंसा और मारकाट के प्रति विरक्ति के भाव को दर्शाती है। वह सोचता है इस तरह से तो जिंदगी में बदलाव आने वाला नहीं है। हमें अपने लिए कोई छोटा-मोटा काम शुरू करना होगा –
” जब कुछ काम करने लगते तो यह एहसास भी खत्म हो जाएगा”, प्रद्युम्न तटस्थ भाव से बोला, “ओफ, क्या जिन्दगी हो गई थी हमारी, बगैर किसी उद्देश्य के हम जंगलों-पहाड़ों में भटकते फिरे। गाँव-गाँव, शहर-शहर भागते, छिपते रहे। गोलियों और बम धमाकों के बीच जान हथेली पर रखकर भी हम सिवा बदनामी के कुछ हासिल नहीं कर पाए।” आत्मग्लानि से ग्रस्त वह आत्मसमर्पण कर देता है और पुनर्वास के लिए मिले पैसों से वह अपने घर की मरम्मत करवाता है तथा एक पी सी ओ खोलता है, अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए।
“पेंडुलम” संग्रह की तीसरी कहानी है, जिसमें दो युवकों साकेत और राजू की मौज-मस्ती को वर्ण्य-विषय बनाया गया है। राजू शहर के प्रतिष्ठित वकील और साकेत एक साधारण परिवार का है; दोनों दोस्त हैं। राजू शराब पीकर तेज रफ्तार में गाड़ी चलाता है और एक साइकिल सवार को टक्कर मार देता है जिससे उसकी मौत हो जाती है। राजू जो कि साकेत का दोस्त है और वही शराब पीकर गाड़ी भी चला रहा था वह साकेत को भी बराबर का दोषी मानता है। आज की युवा पीढ़ी आज़ादी के नाम पर कैसा-कैसा उच्छ्रंखल व्यवहार करती है यह कहानी उसका उदाहरण है।
“लौट आओ” पड़ोसी देश भूटान में चल रहे आतंक की कहानी बयान करती है। केवल लड़के ही नहीं लड़कियाँ भी उग्रवादियों के चंगुल में फंस जाती हैं। इस कहानी में लता और सुदर्शन की प्रेम कहानी वर्णित है। लता जो स्वयं उग्रवादी है ,को सुदर्शन से प्यार हो जाता है और दोनों भूटान के जंगलों में शादी कर लेते हैं। उनके दो बच्चे भी होते हैं -कीर्ति और आलोक। लता आत्मसमर्पण कर एक सामान्य जीवन जीना चाहती है तथा वह , यह भी चाहती है कि सुदर्शन भी इस मारकाट और उग्रवाद को छोड़कर उसके साथ रहे।
“मत्स्य न्याय” कहानी भी उग्रवाद के ही एक पहलू को उजागर करती है। यदि किसी सरकारी कर्मचारी की गतिविधियाँ संदिग्ध होती हैं तो सरकार उसके कामकाज पर नज़र रखती है और दोषी पाए जाने पर उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई भी करती है। कई बार तो कर्मचारी की नौकरी भी चली जाती है। अब उग्रवाद प्रभावित इलाके में यदि किसी व्यक्ति के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए नौकरी से हाथ धोना पड़ता है तो वह इसका बदला लेने के लिए उग्रवादियों से भी हाथ मिला सकता है। यह बात सभी सरकारी कार्यालयों के अधिकारी जानते हैं। इसलिए वे अपने अधीनस्थ के सिर पर इसका ठीकरा फोड़ देते हैं। तिलक बरुआ जो कि अल्फा का सदस्य था की मुअत्तली पर भी यही हुआ। कपिल को उसकी शिकायत करने का दोषी बता दिया गया जबकि वह पूरी तरह निर्दोष था और उसे धमकी भरे फोन आने लगे। वह और उसका पूरा परिवार मुसीबत में फंस गए।
“आत्मसमर्पण” कहानी भी दीप्ति और सौरभ की प्रेम कहानी है। सौरभ जो कि उग्रवादी संगठन से जुड़ा हुआ है, मगर दीप्ति को उससे प्यार हो जाता है। सौरभ सेना के सम्मुख आत्मसमर्पण कर देता है परंतु आत्मसमर्पण का विरोध करने वाले गुट से उन्हें भय है, कहीं वे नुकसान न पहुँचाएँ। इस कहानी के माध्यम से चितरंजन जी यह संदेश देने में सफल रहे हैं कि गलत रास्ते पर चलने वाले व्यक्ति को कभी न कभी अपनी गलती का अहसास होता है और वह बुरे कामों को छोड़कर एक सामान्य जीवन जीने के लिए लालायित होता है।
“फिर भी भय” एक ऐसे जोड़े की कहानी है जो उग्रवाद को छोड़कर गुवाहाटी से मुंबई पहुंच जाते हैं। वहाँ भी पकड़े जाने का डर उन्हें बना रहता है। रूपा जो कि गर्भवती है, उसका प्रसवकाल नजदीक है पर सोमेश्वर के पास इतने पैसे नहीं कि वह डिलीवरी करवा सके। यहाँ उनकी मुलाकात वंशी दा से होती है। वंशी दा रूपा के प्रसव के लिए फिरौती माँगता है। यह बात सोमेश्वर को अच्छी नहीं लगती है। वह मन ही मन सोचता है “शिशु का जन्म तो आसानी से हो जाएगा,मगर जब वह अपनी जन्म की कथा सुनेगा तो क्या कहेगा? दहशत भरे माहौल में ,धमकी के बल पर ऐंठे गए रुपयों के द्वारा उसका जन्म हुआ था।”
संग्रह की अगली कहानी “पोस्टर” है। इस कहानी में भी असम की अलगाववादी ताकतों और उनके कारनामों का जिक्र है। आंदोलन कोई भी हो समय-समय पर उससे जुड़ने वाले लोगों की सोच के कारण बदलता रहता है। जिस असम आंदोलन का आरंभ असम से बहिरागतों को भगाने और राज्य समृद्धि के लिए की गई थी वह अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है और अलग असम की मांग होने लगती है। कहानी का एक संवाद बेहद उल्लेखनीय है ” हमारे जैसे लोगों ने एक स्वतंत्र असम की नहीं, बल्कि समृद्ध असम की कल्पना की थी। असम तो बृहत् भारत के साथ स्वतंत्र है ही। बस, इसे अशिक्षा, काहिली, बेकारी और भ्रमों से स्वतंत्र करना है। हम तो सिर्फ यही चाहते थे कि असम से विदेशी लोग बाहर जाएँ। दूसरे राज्यों से आए लोग विदेशी नहीं हो सकते।”
कई बार यह देखने में आता है कि व्यक्ति को गलत रास्ते पर चलने के लिए समाज मजबूर कर देता है। “अंत” एक ऐसी ही कहानी है। मंगल पाण्डे अपराध की दुनिया इसलिए कदम रखता है क्योंकि एक मनचला उसकी बहन से छेड़-छाड़ करता है और उसे बचाने के लिए वह उसकी हत्या कर देता है। एक बार अपराध की दुनिया में प्रवेश करने के साथ ही वह उसमें धँसता चला जाता है। पर अपराधी का अंत कभी भी अच्छा नहीं होता और वह कानून के हाथों मारा जाता है। अंततः मंगल पाण्डे के साथ भी ऐसा ही होता है, जो कभी अधिकारियों और मंत्रियों को अपनी जेब में रखता था ,वह भी मारा जाता है।
“नींव का पत्थर” कहानी संबंधित है विदेशों से विभिन्न चीज़ों का आयात-निर्यात करने वाले लोग किस तरह से हथियार आदि की आपूर्ति में लग जाते हैं, विशेष रूप से किसी अलगाववादी आंदोलन से जुड़े हुए लोग। जब भी देश में कहीं कोई आतंकी या अलगाववादी गुट सक्रिय होते हैं तो इनका समग्रता में विश्लेषण करना होता है। विशेष रूप से सामाजिक और राजनीतिक घटनाक्रम इन सबके लिए उत्तरदायी होते हैं। इस बात के समर्थन के लिए कहानी के संवाद को उद्धृत किया जा रहा है “प्रशासन इसे खाद-पानी देता है, तो राजनीतिबाज इसे हवा देते हैं। कुछ तथाकथित बिचौलिए इसके बीच में भ्रष्टाचार का आश्रय लेकर मालामाल हो जाते हैं। जबकि साधारण, गरीब लोग दो पाटों के बीच पिसे और मारे जाते हैं।”
हथियारों की तस्करी और आपूर्ति , धन की व्यवस्था के लिए हफ्ता उगाही, अपहरण आदि की घटनाएँ उन क्षेत्रों में आम होती हैं। पूर्वोत्तर का दर्द कहानी संग्रह की अंतिम कहानी “विजिटिंग कार्ड ” है। जिसमें चाय बागान के अधिकारी के बेटे का अपहरण उग्रवादी कर लेते हैं। उग्रवादियों को पकड़ने के लिए पुलिस जाल बिछाती है और वे हवाई अड्डे पर पकड़े जाते हैं। इसमें ,पुलिस को मदद मिलती है विजिटिंग कार्ड से जो महिला उग्रवादी के पर्स से मिलता है।
इस संग्रह की सभी कहानियाँ अपने कथ्य की दृष्टि नवीनता लिए हुए हैं। प्रायः साहित्यकार इस तरह के विषयों को साहित्य का केंद्रबिंदु बनाने से बचते नज़र आते हैं लेकिन चितरंजन भारती जी ने निडरता और साहस का परिचय दिया है और पूर्वोत्तर भारत के उस पहलू से रूबरू कराया है जो साहित्य की दृष्टि से एकदम अछूता रहा है। चितरंजन भारती जी एक सिद्धहस्त कहानीकार हैं इसलिए इनकी इस संग्रह की सभी कहानियाँ एक ऐसे मोड़ पर समाप्त होती हैं जो समाज को न केवल एक सकारात्मक संदेश देती हैं अपितु युवावर्ग को इस बात के लिए सचेत भी करती हैं कि उग्रवाद या आतंकवाद से दूर रहकर ही हम जीवन में अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।
चूँकि चितरंजन भारती जी ने लंबे समय तक पूर्वोत्तर में रहते हुए अपनी सेवाएँ प्रदान की हैं, इसलिए उन्होंने वहाँ के लोगों और समाज को नज़दीक से देखा और समझा है। किसी क्षेत्र विशेष के घटनाक्रम को किसी कहानी में पिरोने के लिए वहाँ की सांस्कृतिक, सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियों से परिचित होना आवश्यक होता है। केवल कल्पनाशीलता के सहारे कहानी की रचना स्वाभाविकता को नष्ट कर देती है और पाठक उनमें रुचि नहीं लेते। आपकी कहानियाँ शुरू से आखिर तक पाठकों को बाँधे रखने में इसलिए सफल होती हैं क्योंकि उनमें स्वाभाविकता के साथ नयापन और कथ्य की बुनावट का पैनापन है। कहानियों को पढ़ते हुए घटनाक्रम आँखों के सामने घटित होता हुआ प्रतीत होता है।
इस असाधारण और साहसिक कार्य के चितरंजन भारती जी को हार्दिक बधाई। ईश्वर से कामना है कि आप इसी तरह साहित्य की अनवरत श्रीवृद्धि करते रहें।
समीक्षक,
डाॅ बिपिन पाण्डेय

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