‘पूरब की लाल किरन’
मैं पूरब की लाल किरन ,
तुम हिमगिरी के स्वेत भाल।
वन-उपवन से बहते आये,
लेकर धवल दुग्ध सी माल।
तम से नहाकर मैं निकली ,
अनजान डगर पर बढ़ती गई ,
गहराई मैं जिनकी डूब गई मैं ,
थे वो तुम्हारे नयन विशाल ।
गहरे नील से सागर में मैं,
सुध-बुध अपनी भूल गई।
अन्तस्थल का मिला बिछौना ,
नैन मूंद कर मैं सो गई।
मैं पगली ये भूल गई,
आएगा यहाँ वैरी विराग ,
वैरी विराग की पीड़ा से ,
मैं लाल से पीली पड़ जाऊँगी ।
मैं पूरब की लाल किरन ,
जा पश्चिम मैं छुप जाऊँगी ।
तुम को तो आगे बढ़ करके ,
अभी और बहुत कुछ करना है ।
उजड़े रेगिस्तानों के हृदय में,
हरियाली को भरना है।
तुम कर्म करो और पुण्य भरो ,
मुझ में तुम व्यर्थ न मोह धरो ।
पश्चिम के पाश से हो विमुक्त,
मैं इक दिन वापस आऊँगी ।
बन पूरब की फिर लाल किरन ,
करने आऊँगी चिर मिलन ।
करने आऊँगी चिर मिलन ….
-Gn