पूजा-स्थलों की तोडफोड और साहित्य में मिलावट की शुरुआत बौद्धकाल में (Demolition of places of worship and adulteration in literature began during the Buddhist period.)
समकालीन युग के सर्वाधिक निर्भिक और निराले दार्शनिक और धर्मगुरु आचार्य रजनीश ने कहा है कि सच कर्कश और कडवा नहीं होता है, बल्कि सच को सुनने और उसे पचाने का संसार के लोगों का अभ्यास ही नहीं है! एक अन्य स्थान पर उन्होंने एक और क्रांतिकारी बात कही है! उनके अनुसार सिद्धार्थ गौतम बुद्ध ने सनातन धर्म के ग्रंथ वेद,यज्ञ और आर्य वैदिक धर्म की कभी भी आलोचना या विरोध नहीं किया! वे तो स्वयं ही आर्य वैदिक धर्मी ऋषि थे! उन्होंने तो वेद, यज्ञ और पूजापाठ की आड़ में हो रही अनैतिकता, अमानवीयता और पाखंड का विरोध किया था! यह काम तो आधुनिक युग में आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने भी किया है! तो क्या हम स्वामी दयानंद सरस्वती को वेद विरोधी, यज्ञविरोधी और सनातन प्रतीकों का विरोधी कह देंगे? नहीं,हम ऐसा नहीं कह सकते!
जब भी हम सनातन धर्म और संस्कृति का जिक्र करते हैं तो कुछ बातें ख्याल में रखना आवश्यक है! भारत और भारत से बाहर एक भी पारसी, यहुदी, बौद्ध ,इस्लामी पूजा- स्थल ऐसा नहीं मिलेगा जोकि हिन्दू पूजा स्थलों, भवनों,महलों, आवासों, गुरुकुलों और मंदिरों को तोडकर नहीं बनाया गया है! गडे मूर्दे तो उखडने ही चाहियें!एकतरफा नहीं अपितु चहुंदिशा यह काम होना चाहिये! सर्वप्रथम और एक सांप्रदायिक भावना को लेकर पूजा स्थलों के तोडफोड की शुरुआत बौद्ध मत से दीक्षित राजाओं से हुई थी! इसके बाद हिन्दू राजाओं और फिर मुगल राजाओं ने यह तोडफोड का यह कार्य धडल्ले से किया!निष्पक्षता से यदि पूजा स्थलों की खुदाई की जाये तो हरेक बौद्ध स्तुप, मस्जिद और चर्च के नीचे हिन्दू पूजा स्थलों के चिन्ह मिलेंगे! सर्वाधिक तोडफोड का काम बौद्ध राजाओं के काल में तथा मुगल आदि विदेशी आक्रांताओं के काल में हुआ था! बौद्ध काल के पश्चात् हिन्दू राजाओं ने भी उन बौद्ध स्थलों को तोडकर हिन्दू पूजा स्थल बनाये,जहाँ पर पहले बौद्ध राजाओं ने तोडफोड की थी!कुल मिलाकर सर्वाधिक तोडफोड हिन्दू पूजा स्थलों के साथ ही हुई है! लेकिन इस समय भारत में हिंदुओं, बौद्धों, ईसाईयों, मुसलमानों, नव बौद्धों, साम्यवादियों और संघियों में और यहाँ तक कि आर्यसमाजियों में भी अंधभक्ति चरम पर है! कोई किसी को समझने के लिये तैयार नहीं है!सबको अपनी दुकानदारी की चिंता है! जिसका, जब और जैसे भी दांव लग जाता है, वही सत्ताधारी राजनीतिक दल के नेताओं से साठगांठ करके अपनी दुकानदारी को आगे बढाने के लिये जुगाड़ करने पर लग जाता है! इससे सनातन धर्म और संस्कृति का अहित हो रहा है!
तो इस समय सर्वाधिक आवश्यक यह है कि बौद्ध, हिन्दू,ईसाई और इस्लामी पूजा स्थलों की खुदाई के साथ- साथ हिन्दू, बौद्ध,ईसाई, इस्लामी,साम्यवादी, संघी, आर्यसमाजी और नव -बौद्ध अंधभक्तों की खोपडी की खुदाई भी होना ही चाहिये!भारत से सांप्रदायिक गंदगी को साफ करने के लिये यह बेहद आवश्यक है!इसके लिये अब एक नया मंत्रालय बना दिया जाना चाहिये! बेरोजगारी, अपराध, भ्रष्टाचार, बिमारी, गरीबी, बिजली, पानी, सिंचाई, खेती किसानी तो हमारे नेताओं और धर्मगुरुओं के लिये कोई समस्या ही नहीं है! इनकी तरफ़ तो इन्होंने ध्यान देना ही छोड दिया है!
खोपड़ियों की खुदाई और सफाई का काम योगाभ्यास के द्वारा ही संभव हो सकता है! लेकिन विडम्बना देखिये कि पिछले कुछ दशकों से सनातन भारतीय योगाभ्यास को भी व्यापारी तथाकथित धर्मगुरुओं द्वारा कसरतयोग,कपालभाति योग,आसनयोग,तीव्रश्वसनयोग, होटयोग,कोल्डयोग,सैक्सयोग,वमन-विरेचन-योग में परिवर्तित कर दिया है! तोडफोड करने वालों ने योगाभ्यास को भी नहीं छोड़ा है!अतीत में ऐसा ही घृणित कुकृत्य महर्षि पतंजलि के योगसूत्र, महर्षि कपिल के सांख्यसूत्र तथा महर्षि गौतम के न्यायसूत्र के साथ बौद्ध विद्वानों ने उनमें मिलावट करके या तोडमरोडकर या अर्थ का अनर्थ करके किया था!
शास्त्रार्थ में हर तरफ से पराजित होने के पश्चात् सनातन धर्म, संस्कृति, दर्शनशास्त्र, महाकाव्यों, पुराणों और स्मृतियों में प्रक्षेप का घृणित कुकृत्य बौद्ध काल में बौद्ध राजाओं के सरंक्षण में सर्वाधिक रुप से हुआ था! इस तरह से साहित्यिक प्रक्षेप करके साहित्यिक प्रदुषण की शुरुआत ज्ञात इतिहास में बौद्धकाल में ही हुई थी! मैकाले, मैक्समूलर आदि के पाश्चात्य चेले चपाटों ने तो यह साहित्यिक प्रदुषण का काम बहुत बाद में किया है!
तो यह सांप्रदायिक तोडफोड का जिक्र करते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिये कि इसकी शुरुआत सर्वप्रथम बौद्धों ने ही की थी तथा इसका सर्वाधिक नुकसान सनातन धर्म,संस्कृति, दर्शनशास्त्र और इसके पुरातन साहित्य का ही हुआ है!बौद्ध, ईसाई, इस्लामी,मंगोली, अफगानी मुगलिया,फ्रैंच,जर्मन, ब्रिटानी,अमेरिकन,नव ईसाई, नव बौद्ध, साम्यवादी और संघी आदि सभी सनातन धर्म और संस्कृति के सभी पुरातन प्रतीकों के साथ आज भी तोडफोड करने पर लगे हुये हैं! सनातन धर्म और संस्कृति को छोडकर उपरोक्त सभी को राजनीतिक सरंक्षण प्राप्त है! सभी को अल्पसंख्यक का लाभ मिल रहा है! आधुनिक कहे जाने वाले वैज्ञानिक युग में भी सनातन धर्म और संस्कृति के साथ वही तोडफोड की जा रही है, जिसकी शुरुआत आज से पच्चीस सदी पूर्व बौद्ध काल में हुई थी!
और तो और भारत में बौद्ध काल में ही चार्वाक, आजीवक,मक्खली गौशाल, संजय वेलट्टिपुत्त, प्रक्रुध कात्यायन आदि के मतों के भी पूजा स्थान और गुफाएं आदि बहुतायत से मौजूद थीं! उन सबकी तोडफोड बौद्ध राजाओं द्वारा हुयी! वहाँ पर बौद्ध गुफाओं और स्तूपों आदि का निर्माण किया गया!क्योंकि सनातन धर्म और संस्कृति सर्वाधिक पुरातन हैं, इसलिये पूजा स्थलों, शिक्षा स्थलों और साहित्य के साथ जबरदस्ती से तोडफोड, मिलावट, प्रक्षेप और धींगामस्ती भी इन्हीं के साथ हुई है!
सनातन धर्म के शास्त्रों वेद, उपनिषद्, दर्शनशास्त्र और पहले के पुराणों तक में अवतारवाद की वह अवधारणा मौजूद नहीं है जिसे पिछले दो हजार वर्षों के दौरान तथाकथित पंडितों, पुरोहितों, कथाकारों और धर्माचार्यों ने प्रचलित कर दिया है! सनातन शास्त्रों में महापुरुषों के समय समय पर धरती पर आकर मानव जगत् को उपदेश देने का तो जिक्र है लेकिन परमात्मा द्वारा अवतार लेकर धरती से अधर्म के विनाश और धर्म की स्थापना के उपदेश सनातन धर्म में कहीं भी नहीं हैं!श्रीमद्भगवद्गीता में भी यह अवधारणा मौजूद नहीं है! श्रीमद्भगवद्गीता की तोडमरोडकर की गयी व्याख्याओं के द्वारा अवतारवाद को घुसेड़ दिया गया है! मानवता के आचरण को परनिर्भर बना देने वाली यह अवतारवाद की निठल्ली अवधारणा भी सर्वप्रथम बौद्ध मत से ही आई है! बौद्ध मत से ही यह अवधारणा हिन्दू, ईसाईयत, इस्लाम, सिखी आदि में प्रचलित हुई है!सनातन धर्म में पूजा स्थलों का जो शोषक और मानवता के आचरण को पुरोहितगिरी से भर देने वाला रुप भी बौद्ध मत से ही आया है! आज ये अपने आपको कितना ही नास्तिक और अनात्मवादी कहें, लेकिन सच यही है कि समस्त धरा पर मौजूद विभिन्न संप्रदायों और मजहबों में शोषक,निठल्ली, अनैतिक, हिंसक, मांसाहार, मूर्तिपूजा की कुरीतियों का प्रचलन बौद्ध मत से आया है! अवतारवाद, पैगम्बर, ईश्वरपुत्र,मसीहा आदि की प्रवृत्ति का मूल महायान की बुद्ध की मैत्रेय के रूप में आने की अवधारणा से ही हुआ है!
विडम्बना देखिये कि इन्होंने बदनाम सनातन धर्म को कर दिया है लेकिन भारत में अधिकांश कुरीतियों के जिम्मेदार ये खुद ही हैं! स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में इसका संकेत करते हुये कहा है कि मूर्ति पूजा की शुरुआत जैन और बौद्ध मत से हुई है!
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तकों ‘हिंदुस्तान की कहानी’ और ‘विश्व इतिहास की झलक’ में मुर्ति पूजा की शुरुआत को जैन और बौद्ध मत से माना है! वेद, उपनिषद्, दर्शनशास्त्र आदि ग्रंथों में मूर्ति पूजा का कोई भी समर्थन नहीं है!वेद में तो न तस्य प्रतिमा अस्ति कहकर स्पष्ट रूप से मूर्ति पूजा का निषेध किया है!पुराण साहित्य में भी अनेकत्र मूर्ति पूजा की घोर निंदा की गयी है!आचार्य चाणक्य तक ने मूर्ति पूजा का निषेध किया है!सनातन धर्म के शास्त्रों में सर्वत्र नारी को सर्वोच्च गरिमा प्रदान की गई है! लेकिन बौद्ध और जैन मत तो नारी को हिकारत की दृष्टि से देखा गया है! शुरू में सिद्धार्थ बुद्ध ने तो नारी को अपने मत में दीक्षित करने से ही मना कर दिया था! बहुत बडे संघर्ष और विरोध के बाद उन्होंने नारी को दीक्षा देना स्वीकार किया था! लेकिन नारी की निंदा करते हुये चेतावनी दी थी कि नारी को दीक्षा देने की वजह से जो बौद्ध मत 2000 वर्षों तक चलना था, वह केवल 500 वर्षों तक ही जीवित रह पायेगा! हुआ भी ठीक वैसा ही! फलस्वरूप आज सिद्धार्थ बुद्ध के मत के वास्तविक मत का कोई नामलेवा समस्त धरा पर मौजूद नहीं है! बस, उनकी आड लेकर मनमाने मत प्रचलित हैं! यही तक ही नहीं अपितु यह भी बड़ा दिलचस्प है कि बौद्ध मत ने अपने बलबूते एक भी महान दार्शनिक पैदा नहीं किया! महायान, हीनयान, वैभाषिक, सौत्रांतिक, विज्ञानवाद, शून्यवाद,स्वतंत्र विज्ञानवाद,वज्रयान आदि के अधिकांश दार्शनिक सनातन धर्म से मतांतरित हैं! बौद्ध मत के भिक्षुवाद और शून्यवाद तथा अद्वैत मत के मायावाद की गलत परंपरा ने भारत को विदेशी आक्रमणकारियों का साफ्ट टारगेट बनाकर भारत को असुरक्षित कर दिया! इस पर आज तक बहुत कम विचार हुआ है! भारत की 1300 वर्षों की गुलामी और बर्बादी में उपरोक्त का महत्वपूर्ण योगदान रहा है! पाश्चात्य विचारकों द्वारा दर्शनशास्त्र और इतिहास को मनमानी गलत दिशा दिये जाने के कारण इस संबंध में निष्पक्ष और सत्य लेखन न के बराबर हुआ है!अब समय आ चुका है कि सत्य का उद्घाटन होना चाहिये!
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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र- विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119