*पुस्तक समीक्षा*
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : सैनिक (काव्य)
रचयिता : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
प्रकाशन का वर्ष : 1999
समीक्षक : डॉ. ऋषि कुमार चतुर्वेदी (अवकाश प्राप्त हिंदी विभागाध्यक्ष, राजकीय रजा स्नातकोत्तर महाविद्यालय, रामपुर)
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सैनिक : बर्फ पर सुलगते सवाल
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रवि प्रकाश का नवीन प्रकाशन सैनिक जब हाथ में आया तो सबसे बड़ी प्रसन्नता यह देखकर हुई कि वह एक छंदोबद्ध रचना है। यह प्रसन्नता तब और बढ़ गई जब मैंने यह पाया कि सभी छंद बड़े चुस्त-दुरुस्त हैं और उनमें यति और लय का निर्वाह भली प्रकार हुआ है । उनमें ओज गुण से युक्त एक अद्भुत प्रवाह है, जो कथ्य के सर्वथा अनुरूप है । आज छंद-मुक्त गद्य कविता के युग में कभी-कभी जो छंदोबद्ध रचनाऍं देखने में आ भी जाती हैं उनमें प्राय: यति और लय का ठीक-ठीक निर्वाह नहीं हो पाता। ऐसे में रवि प्रकाश ने छंद के अनुशासन का तो पालन किया ही है, घनाक्षरी जैसे छंदों का भी बड़ा सफल निर्वाह किया है । इसमें उनकी एक ग़ज़ल भी है -अपना एक अलग अंदाजे बयॉं लिए हुए, बड़ी साफ-सुथरी और आकर्षक। इससे प्रतीत होता है कि रवि प्रकाश अपना रास्ता स्वयं बनाने में यकीन रखते हैं । बॅंधी हुई लीक से हटकर अकेले चल पड़ने का साहस उनमें है ।
यह साहस केवल शिल्प के क्षेत्र में ही नहीं, कथ्य के क्षेत्र में भी दिखाई देता है । आज का बुद्धिजीवी कहा जाने वाला वर्ग राष्ट्रवाद को संकीर्ण और फासिस्ट मानने में गर्व का अनुभव करता है । पोखरण विस्फोट पर ‘बम नहीं रोटी चाहिए’ का नारा लगाकर शांति का मसीहा बनने में अपनी शान समझता है और अल्पसंख्यकवाद तथा छद्म धर्मनिरपेक्षता का पोषण करके उदारवादी और प्रगतिशील होने का दंभ करता है । इस साहित्यिक परिवेश में रवि प्रकाश ने राष्ट्रीयता का शंखनाद किया है, युद्ध का उद्घोष किया है, धर्मनिरपेक्षता के सच्चे स्वरूप का उद्घाटन किया है, इतिहास और सामयिक परिस्थितियों का आकलन करते हुए अनेक मौलिक और ज्वलंत प्रश्न उठाए हैं।
सच्चा कवि वह नहीं है जो भीड़ के पीछे चलता है और बिना सोचे समझे जमीन आसमान के बुलाबे मिलाने वाली कविताऍं लिखने लगता है । सच्चा कवि वह है जो भीड़ से अलग खड़ा होकर देखता-समझता है और स्थितियों का विश्लेषण करता है । रवि प्रकाश ने केवल सैनिकों के प्रशस्ति-गान या युद्ध के आह्वान की जोशीली कविताऍं लिखी होतीं, तो वे भी साधारण कवियों की पंक्ति में खड़े होते । किंतु वे इस स्थिति से आगे बढ़े हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि केवल सैनिकों के सर्वोच्च बलिदान का स्मरण ही पर्याप्त नहीं है । हमें उन कारणों और स्थितियों की समीक्षा करनी होगी, जिनसे सैनिक शहीद होते हैं और राष्ट्र को युद्ध लड़ने पड़ते हैं।
रवि प्रकाश ने कारणों और स्थितियों की यह समीक्षा की है और बड़ी बेबाकी से की है । वह प्रश्न उठाते हैं कि पाकिस्तान ने जिस कारगिल क्षेत्र में बिना एक भी बूॅंद रक्त बहाए कब्जा जमा लिया था, उसे पाकिस्तान के कब्जे से छुड़ाने में हमारे चार सौ से अधिक वीर जवान क्यों शहीद हो गए ? और ऐसी स्थिति क्या इसी बार आई है, वह तो स्वतंत्रता के बाद से बार-बार आ रही है :-
पूछ रही जनता सीमा पर यह कैसा खिलवाड़ है ?
जब उनके मन में आए वह भारत पर चढ़ आऍं
तब हम सैनिक भेज-भेज कर उनको दूर भगाऍं
कब तक यह सिलसिला चलेगा चला अनेकों बार है
इतना ही नहीं बार-बार हम युद्ध की भूमि पर जीते हैं, किंतु संधि की मेज पर हम हार गए हैं । हमने बार-बार वह जीती हुई भूमि वापस कर दी है। आखिर ऐसा क्यों है कि युद्ध बराबर हमारी ही भूमि पर लड़ा जाता है और हम तोते की तरह शांति-शांति रटने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते । हम बराबर धोखा खाते रहे हैं और अब भी धोखा खाने की यह बान हमने छोड़ी नहीं है :-
शांतिदूत नेहरू ने धोखा चीन देश से खाया
गलती हमने करी पाक ने काश्मीर हथिआया
अब भी धोखे खाने वाला बदला नहीं रुझान है
धन्य-धन्य सैनिक का जीवन, धन्य-धन्य बलिदान है
कारगिल में भी हमने धोखा खाया । हम कुंभकर्णी नींद सोते रहे और दुश्मन ने सेंध लगा ली। हम इस कारगिल-युद्ध से सबक सीख लें, यही बहुत है:-
सबक कारगिल का कहता है धोखे में मत रहना
सोचो क्या पाया क्या खोया कितना खून बहाया
अपनी जमीन थी जिसको हमने खाली सिर्फ कराया
पूछ रहा है देश बनाया संयम को क्यों गहना ?
हम संयम को गहने की तरह कब तक धारण किए रहेंगे ? कब तक रट्टू तोते की तरह शांति शांति का पाठ करते रहेंगे और कब तक अपनी जमीन को दुश्मनों से खाली कराने को भी काफी मानते रहेंगे ? यह प्रश्न ऐसे हैं जो शायद हिंदी कविता में पहली बार उठाए गए हैं और इनका जवाब मॉंगने का हक प्रत्येक उस व्यक्ति को है जो इस देश को प्यार करता है । देश की चिंता रखने वाले हर आदमी की तरह रवि प्रकाश का भी यही विचार है कि हमें सावधान रहना है । अगर हमारी निगाहें सावधान होतीं तो दुश्मन हमारी धरती पर कदम रखते घबराता । रवि प्रकाश की बारीक नजर यह भी देखती है कि अघोषित युद्ध अभी रूका नहीं है, आतंकवाद और घुसपैठवाद अभी हारा नहीं है। आम नागरिक का तो कहना ही क्या, सेना पर भी आए दिन हमले हो रहे हैं और इस तरह हमारे मनोबल को तोड़ने की कोशिश की जा रही है । लेकिन हम हैं कि बाहर दुश्मन खड़ा हुआ है और हम अंदर झगड़ रहे हैं :-
आपस में हम लड़े अगर तो जीवित कहॉं रहेंगे
अगर देश हारा तो बोलो जीता किसे कहेंगे
पर सब अपनी अलग-अलग ताकत पर अकड़ रहे हैं
बाहर दुश्मन खड़ा हुआ, हम अंदर झगड़ रहे हैं
रवि प्रकाश का स्पष्ट विचार है कि अलगाववाद और द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांतों पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ है। पाकिस्तान का निर्माण कट्टरपंथी ताकतों की इस विचारधारा का परिणाम था कि मुसलमान एक अलग कौम है, जिनका अपना इतिहास हिंदुस्तान पर बादशाहत करने का रहा है । इसीलिए वे कहते हैं :-
कैसे बना बनाया किसने सुन लो पाकिस्तान है
जिनकी गतिविधियों में भारत कभी नहीं बस पाया
नहीं हिंद से अपनेपन का भाव जरा भी आया
किया न वंदे कभी मातरम् किया नहीं सम्मान है
कैसे बना बनाया किसने सुन लो पाकिस्तान है
पाकिस्तान बनने देना और कश्मीर के बड़े भाग पर पाकिस्तानी आधिपत्य होने देने में हमारे नेताओं ने जो गलतियॉं की हैं, रवि प्रकाश ने उन्हें भी रेखांकित किया है। उन्हें लगता है कि गॉंधी और सुभाष दोनों मिलकर चल पाए होते तो शायद पाकिस्तान नहीं बन पाया होता और कश्मीर में शुरू में ही भरपूर सैनिक कार्यवाही की गई होती और उसका मामला संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले जाया गया होता तो आज यह मसला नासूर नहीं बन गया होता ।
पाकिस्तान बनने और कश्मीर पर उसके लगातार हमलों के परिणामस्वरुप सबसे बड़ी ट्रेजडी यह हुई कि लाखों कश्मीरी पंडित बेघरबार हो गए और अपने ही देश में शरणार्थी बन गए। हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी साहित्यकार इस ट्रेजरी पर आश्चर्यजनक रूप से मौन रहे किंतु अयोध्या का विवादास्पद ढॉंचा गिरा तो उनकी करुणा का बॉंध टूट पड़ा ,उनका सिर भी राजनीति के शकुनिओं की भॉंति लज्जा से झुक गया और उनके विलाप से उत्पन्न कोहराम से पत्र-पत्रिकाऍं भर गईं। किंतु रवि प्रकाश का ध्यान कश्मीरी पंडितों की वेदना और अपने ही घर में शरणार्थी बन जाने की विडंबना पूर्ण स्थिति ने आकर्षित किया और उन्होंने इसे आजादी के बाद की सबसे शर्मनाक घटना बताया :-
कश्मीरी पंडित अपना घर-बार छोड़कर फिरते
शरणार्थी वे बने समस्याओं के बादल घिरते
आजादी के बाद शर्म की यह कठोरतम घटना
काश्मीर से कश्मीरी पंडित लुट-पिटकर हटना
आखिर ऐसा क्यों हुआ कि समकालीन साहित्य में एक बेजान ढॉंचा गिरने की घटना को सबसे शर्मनाक घटना के रूप में दर्ज किया गया और लाखों परिवारों की बर्बादी की उपर्युक्त घटना को एक सामान्य घटना के रूप में भी नहीं रखा गया । इसका कारण है वोट की राजनीति से जन्मा अल्पसंख्यकवाद, जिसे हमारे बुद्धिजीवियों ने फैशन के बतौर स्वीकार कर लिया है । रवि प्रकाश का ध्यान इस तथ्य की ओर भी गया है । इसीलिए वे कहते हैं :-
पाकिस्तान बना क्यों बोलो इसकी जड़ में जाओ
भेद अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के सब आज मिटाओ
अलग-अलग मजहबपरस्त क्यों अब भी बना विधान है
धन्य-धन्य सैनिक का जीवन धन्य-धन्य बलिदान है
मजहब के आधार पर बना पाकिस्तान बार-बार हमारे ऊपर हमले कर रहा है, बार-बार वह नियंत्रण-रेखा का उल्लंघन कर रहा है, उसे नकार रहा है, तो हमीं क्यों उस रेखा से बॅंधे हुए हैं ? जो बॅंटवारा पाकिस्तान नहीं मान रहा है, वह बॅंटवारा हिंदुस्तान क्यों माने ? क्यों नहीं हम भी पाकिस्तान का अस्तित्व मिटाकर एक बार फिर आजादी से पहले का हिंदुस्तान वापस ले आते हैं, वह हिंदुस्तान जो गॉंधी, सुभाष, बहादुरशाह जफर और अशफाक उल्ला खान का सपना था :-
हमें सौंप दो रावी का तट जहॉं राष्ट्र बोला था
पूरी स्वतंत्रता की खातिर भारत ने मुॅंह खोला था
वापस दो लाहौर हमारा, यही हमारा नारा है
रद्द करो बॅंटवारा सारा पाकिस्तान हमारा है
रवि प्रकाश थोथे बुद्धिजीवियों की भॉंति ऑंखें मींच कर कर युद्ध की विगर्हणा (भर्त्सना) और शांति की स्पृहा (कामना) नहीं करते । उनके लिए युद्ध और शांति एक दूसरे के पूरक हैं :-
युद्ध शांति है शांति युद्ध है सच्चाई यह कहती
जहॉं युद्ध-सामर्थ्य वहीं पर शांति बराबर रहती
शांति अहिंसा धर्म किताबों में केवल रह जाते
अगर न होते युद्ध, दैत्य तब सबको खूब सताते
आज भारत के लिए शांति-साधना की नहीं, शक्ति-साधना की आवश्यकता है:-
शक्ति-साधना करनी होगी अपने हिंदुस्तान को
देश में शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए युद्ध करने वाले सैनिकों का बड़ा भावपूर्ण स्मरण रवि प्रकाश ने किया है । उन्होंने महसूस किया है कि हम इसलिए जिंदा है कि सैनिक युद्धभूमि में अपनी जान लुटाता है। हम इसलिए चैन से सोते हैं कि सैनिक सीमा पर जागता है । ये सैनिक-वीर मरकर भी अमर हैं :-
मरते हैं वे लोग सिर्फ जो मरने से डरते हैं
मरे कह़ॉं वे वीर देश के ऊपर जो मरते हैं
शहीद की चिता की राख, उसकी विधवा की चरण-रज तीर्थों से बढ़कर पवित्र है :-
लो शहीद की चिता जली है, पावन राख उठाओ
माथे पर मंदिर का टीका, कहकर इसे लगाओ
यह शहीद की विधवा खुद को गौरव से बतलाती
सुबह-शाम यह यादों के दीपक हर रोज जलाती
इसके पैर छुओ इसका दर्शन गंगा-स्नान है
धन्य-धन्य सैनिक का जीवन धन्य-धन्य बलिदान है
वह नौजवान अभी पच्चीस का भी नहीं हुआ था, जिस ने शत्रु से लड़ते-लड़ते सीने पर गोली खाई थी। उसने अपनी मॉं को पत्र लिखा था कि मॉं मैं भारत मॉं की पूजा करता हूॅं; सैनिक हूॅं, धर्म समझकर धर्मयुद्ध करता हूॅं। रवि प्रकाश ने सैनिकों के त्याग-बलिदान के अत्यंत करुण-कोमल प्रसंगों को सफलतापूर्वक उभारा है :-
उसके ऑंसू देखो जिसको सैनिक-पति पाना था
मॅंगनी तो हो चुकी शेष शादी का हो जाना था
पाने से पहले पति खोने का रूदन अनजान है
धन्य-धन्य सैनिक का जीवन धन्य-धन्य बलिदान है
सैनिक काव्य में इस प्रकार के अनेक स्थल हैं जिन में उक्त उदाहरणों की तरह वीर और करुण का अद्भुत हृदय द्रावी मिश्रण है । इसके अतिरिक्त केवल उत्साह की रसात्मक अभिव्यक्ति भी उसमें बड़ी सफलता के साथ हुई है । जैसे :-
अर्जुन का गांडीव थाम लो महाभयंकर भारी
पांचजन्य का घोष आज करने के तुम अधिकारी
कॉंप उठे जो शत्रु महाभारत वह आज मचाओ
समर-भूमि में विजयपताका वीरों तुम फहराओ
इस प्रकार रवि प्रकाश ने अपनी इन सद्य: प्रकाशित कविताओं में देश की रक्षा में सन्नद्ध रहने और प्राणोत्सर्ग करने वाले सैनिकों का भावपूर्ण स्तवन और स्मरण ही नहीं किया है, आधी शताब्दी से चली आती हुई और दिनोंदिन गंभीर होती हुई देश की एक ज्वलंत समस्या पर उसकी संपूर्ण संप्रभुता में विचार भी किया है और इस सब की अभिव्यक्ति उन्होंने अत्यंत सहज, प्रवाहपूर्ण, लयबद्ध और गेय कविताओं के माध्यम से की है। यद्यपि कहीं-कहीं व्याकरणिक भूलें रह गई हैं और कहीं अभिव्यक्ति में कुछ शैथिल्य आ गया है, किंतु कुल मिलाकर यह कविताऍं प्रौढ़ रचना का एक नमूना कही जा सकती हैं ।
‘करना’ क्रिया का भूतकालिक स्त्रीलिंग रूप परिनिष्ठित हिंदी में ‘की’ बनता है । ‘करी’ स्थानीय बोली का रूप है और परिनिष्ठित रूप में मान्य नहीं है । किंतु रवि प्रकाश में अनेक स्थानों पर ‘करी’ का प्रयोग किया है । जैसे :-
“गलती हमने करी पाक ने काश्मीर हथिआया”.. यहॉं ‘गलती हमसे हुई’- कह दिया गया होता तो यह अशुद्धि दूर हो सकती थी क्योंकि ‘की’ कहने से मात्राऍं कम हो जातीं । वैसे ‘काश्मीर’ का भी शुद्ध रूप ‘कश्मीर’ है । इसी प्रकार “शांति अहिंसा धर्म किताबों में केवल रह जाते”- एक सशक्त पंक्ति है, किंतु इससे नीचे की पंक्ति का उत्तरार्ध काफी हल्का हो गया है । ‘अगर न होते युद्ध दैत्य तब सबको खूब सताते’ ‘तब सबको खूब सताते’ को बदलकर कोई वजनदार पदबंध रखा जा सकता था । जैसे -‘अगर न होते युद्ध यहॉं तो राम-कृष्ण कब आते’ । कविता का सौंदर्य अभिधा में नहीं, व्यंजना में है।