*पुस्तक का नाम : लल्लाबाबू-प्रहसन*
पुस्तक का नाम : लल्लाबाबू-प्रहसन
लेखक : पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र, दीनदारपुरा, मुरादाबाद
प्रकाशक : खेमराज श्री कृष्ण दास, मुंबई (श्री वेंकटेश्वर यंत्रालय)
प्रकाशन का वर्ष : भाद्रपद संवत 1957 तदनुसार लगभग ईसवी सन् 1900
समीक्षक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा,रामपुर (उ. प्र.)
मोबाइल 99976 15451
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विक्रम संवत 1957 में प्रकाशित लल्लाबाबू-प्रहसन लगभग सवा सौ साल पुरानी पुस्तक है । इस नाते हिंदी साहित्य के इतिहास में इसका एक विशेष स्थान है। ‘प्रहसन’ शब्द अब प्रायः लुप्त होने लगा है । यही नहीं, जब विक्रम संवत 1957 में यह पुस्तक प्रकाशित हुई तब इसकी भूमिका में भी लेखक पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र ने यह लिखा था कि “बाबू हरिश्चंद्र जी के तथा पंडित प्रताप नारायण जी के पश्चात नाटक, उपन्यास और प्रहसन आदि का होना एक प्रकार से बंद ही हो गया है ।” इसमें ‘प्रहसन’ पर संभवत उनका अधिक जोर रहा होगा ।
प्रहसन एक प्रकार से नाटक ही है, जिसमें हास्य प्रधान रहता है। अर्थात नाटक की वह प्रस्तुति जो दर्शकों और पाठकों के मन में गुदगुदी पैदा करे, उनको हॅंसाए तथा किसी भी प्रकार से उनके चित्त को प्रसन्न कर दे, वह प्रहसन है । इस दृष्टि से पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र का “लल्लाबाबू-प्रहसन” एक सफल प्रहसन कहा जा सकता है ।
पुस्तक में मात्र तीस प्रष्ठ हैं। आकार छोटा है । एक पृष्ठ में मुश्किल से डेढ़ सौ शब्द आ रहे हैं। अपनी सीमित प्रष्ठ संख्या और आकार में यह प्रहसन मंच पर प्रस्तुति की दृष्टि से जितना सटीक बैठता है, उतना ही पाठकों को पढ़ने में भी आनंद आता है ।
पात्रों की संख्या कम है । केवल छह पात्र हैं ।मुख्य पात्र लल्लाबाबू हैं, जो बच्चे हैं । लेकिन बिगड़े हुए बच्चे कहे जा सकते हैं । रईसों के बच्चे जिस प्रकार से अपने नौकर-चाकर लोगों पर कोई दया नहीं करते, लल्लाबाबू भी उन्हीं में से एक हैं।
प्रहसन में लल्लाबाबू को उटपटॉंग मॉंगों के साथ बार-बार मचलना और जमीन पर लोटते हुए अपनी मॉंग पूरी कराने के लिए अपनी मॉं का सहारा लेते हुए दिखाया गया है । कभी लल्लाबाबू नौकरों को गधा-घोड़ा बनाकर उनके ऊपर बैठ जाते हैं, कभी अपने पिता को ही गधा-घोड़ा बना लेते हैं और उन पर सवारी करने लगते हैं । कभी उन्हें बंदर की तरह नाच नचवाते हैं। कभी तंबू देखते हैं, तो अपने घर के अंदर खुले स्थान पर तंबू लगाने की जिद करने लगते हैं और कहते हैं कि मैं तो तंबू में ही सोऊंगा । लल्ला बाबू बिगड़े हुए रईस बालक हैं । जब वह मचल जाते हैं तो सबको उनकी बात माननी पड़ती है, क्योंकि उनकी मॉं आपने सुपुत्र से अतिशय प्रेम करती हैं तथा उन्हें सुधारने के स्थान पर उनकी हर अनुचित मॉंग के सामने घुटने टेकना ही उन्हें प्रिय है ।
समूचा प्रहसन लल्लाबाबू के बेतुके क्रियाकलापों तथा उन को पूरा करने में लल्लाबाबू के पिता और उनके नौकर-चाकरों के प्रयत्नों को दर्शाने में बीत जाता है। स्थान-स्थान पर बल्कि कहना चाहिए कि प्रहसन में शुरू से आखिर तक पाठकों का भरपूर मनोरंजन होता है ।
पात्रों के संवाद छोटे हैं, इस कारण यह प्रहसन और भी प्रभावशाली बन गया है । मंच-प्रस्तुति की दृष्टि से भी छोटे संवाद अच्छे रहते हैं । यद्यपि प्रहसन का उद्देश्य पाठकों को हॅंसाना है, लेकिन कुछ व्यंग्य तथा चुभती हुई बातें जो उस समय के हिंदुस्तान में कहना उचित लगा, लेखक ने कहने से परहेज नहीं किया ।
एक स्थान पर लेखक ने नौकर-चाकरों के मुॅंह से यह कहलवाया :- “अब तो हिंदुस्थानी हूॅं धीरे-धीरे साहब होत जात हैं।”
उपरोक्त वाक्य में न केवल अंग्रेजों की गुलामी के प्रति एक प्रकार की घृणा प्रकट हो रही है, अपितु इस बात का दर्द भी उभर कर आ रहा है कि भारतीय भी अंग्रेजों के रंग में रॅंगते चले आ रहे हैं । इस तरह इस प्रहसन में स्वतंत्रता की भावना तथा अंग्रेजी-राज के विरुद्ध विद्रोह के स्वर मुखरित हो रहे हैं ।
सामाजिक विषमताऍं और निर्बल वर्ग के ऊपर शक्तिशाली समृद्ध लोगों का अत्याचार प्रहसन में अनेक स्थानों पर झलका है। जब नौकर देखते हैं कि उनके मासिक वेतन की तुलना में कहीं ज्यादा धनराशि फिजूल में खर्च हो रही है, तो उनका चिढ़ना और कुढ़ना स्वाभाविक है । एक नौकर ठीक ही कह रहा है :-
” हमारी नौकरी कैसी झखमारे की है । यह तो शीत है, उस पर इस नालायक ने पानी डाल दिया ।”
एक अन्य स्थान पर नौकर कहता है :-
“किसी की मुसाहिबी की नौकरी करने की बनिस्बत पाखाना उठाना हजार जगह अच्छा है । “
यह सब वेदना पात्रों के द्वारा उस परिस्थिति में प्रकट होती है, जब रईसजादों के बिगड़े हुए बच्चे जिनका नाम लल्लाबाबू है, अपनी जूठन तक नौकरों को हॅंसी-मजाक में खिलाने के लिए विवश कर देते हैं ।
देखिए, प्रहसन का नायक बल्कि कहना चाहिए कि खलनायक और मुख्य पात्र अपने नौकरों से किस प्रकार अहंकार में डूबा हुआ कहता है :-
“हमारी जूंठन तो हमारा कुत्ता केटी भी खा जाता है, फिर क्या तू नहीं खाएगा ? क्या तू उससे अच्छा आदमी है ?”
निश्चित रूप से लेखक पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र ने रईसों की अमानुषिक प्रवृत्ति को नजदीक से देखा होगा और तभी उनके व्यथित हृदय ने इतनी कठोर टिप्पणियॉं की होंगी ।
प्रहसन में कुछ स्थानों पर काव्य का पुट भी आ गया है । एक गाना है :-
मेरा बंदरवा कैसे नाचै रे
कैसे नाचै रे कैसे नाचै रे
एक अन्य स्थान पर लल्लाबाबू के पिताजी रामदयाल कहते हैं :-
बीवी को जो मूंड़ चढ़ावे, उनका है यह हाल
बालक उनके करें ढिठाई, जी के हों जंजाल
यह एक सामाजिक प्रहसन है । अतः इस बात को दर्शाया गया है कि घर और परिवार में अनुशासन तथा शिष्टाचार की कितनी ज्यादा आवश्यकता होती है तथा जब यह सद्गुण घर-परिवार से विदा हो जाते हैं, तब समूचा परिदृश्य ही कुरूपता का शिकार हो जाता है । प्रहसन की भाषा खड़ी बोली के इतर शब्दों से भरी हुई है। केवल इतना ही नहीं आजकल की स्थिति में जो शब्द कुछ अलग ढंग से प्रचलन में आ चुके हैं, 1957 विक्रमी संवत में वह अलग ढंग से प्रयोग में आते थे । गोदाम को गुदाम लिखा गया है । कोतवाली को कुतवाली लेखक ने लिखा है। सूर्यनारायण अब तक उझॅंक रहे हैं । इसमें उझॅंक बड़ा अटपटा शब्द हो गया है । एक स्थान पर लेखक ने लिखा है : -“इन्होंने धोती खोली नहीं बल के पहिरा दी है।” पहनाने को जिन शब्दों में लिखा गया है, वह आजकल के हिसाब से अटपटे ही कहे जाऍंगे ।
प्रहसन में अंग्रेजी के शब्दों का खूब इस्तेमाल हुआ है। उदाहरणार्थ पियर का साबुन, गसनेल के फ्लारिडा वाटर, तौलिया को लविंडर से सराबोर करके तथा डॉक्टर जैक्सन की टूथ पाउडर और फ्रेंच टूथ ब्रश यह कुछ ऐसे अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग हैं, जिनसे पता चलता है कि 1957 विक्रम संवत में अंग्रेजी का प्रचलन भारत के रईसों के घरों में होने लगा था । उर्दू (अरबी मूल ) के मुसाहिब जैसे शब्द प्रहसन में धड़ल्ले से प्रयोग में आए हैं । बनिस्बत उर्दू-शब्द का प्रयोग भी लेखक ने प्रवाह में किया है। इससे स्पष्ट है कि लेखक तत्कालीन प्रचलित शब्दों के प्रयोग से परहेज नहीं करता।
एक अच्छी हास्य रचना के लिए पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र तो बधाई के पात्र हैं ही , ‘साहित्यिक मुरादाबाद व्हाट्सएप समूह’ के एडमिन डॉ. मनोज रस्तोगी को भी हृदय से धन्यवाद देना अत्यंत आवश्यक है, जिन्होंने समूह में पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र की रचनाओं को प्रस्तुत किया और जिनके श्रमसाध्य कार्य के कारण हमें पंडित जी की यह रचना-पुस्तक पढ़ने के लिए उपलब्ध हो सकी।