पुस्तक समीक्षा – 1857 की क्रांति में वाल्मीकि समाज का योगदान
वाल्मीकियों के अदम्य साहस की साक्षी पुस्तक – 1857 की क्रांति में वाल्मीकि समाज का योगदान
पुस्तक का नाम – 1857 की क्रांति में वाल्मीकि समाज का योगदान लेखक – डॉ.प्रवीन कुमार कुल पृष्ठ – 80(अस्सी) मूल्य – 60 (साठ रूपये) प्रथम संस्करण – 2019 प्रकाशक – कदम प्रकाशन दिल्ली – 110086
जो कुछ भी वर्तमान में घट रहा है, उसका एक इतिहास अवश्य है| इतिहास को वर्तमान का आधार भी कहा जाता है| किसी प्राणी का इतिहास अगर स्वर्णिम है तो वर्तमान को भी उज्ज्वल बनाने की कोशिश जारी रहती है| अतीत मानव को सम्बल और साहस प्रदान करता है| इतिहास वर्तमान के लिए एक प्रयोगशाला है| जिसमें वर्तमान को जाँचा और परखा जाता है, पूर्व में घटित उचित आचरण का अनुसरण किया जाता है, जबकि अनुचित घटनाओं से सीख लेकर वर्तमान में सुधार किया जाता है| लेकिन ये स्थिति उसी परिस्थिति में कारगर है, जब हमें इतिहास का ज्ञान हो, इतिहास को लिखा गया हो| उसके प्रमाण भरपूर मात्रा में मौजूद हों| इतिहास अगर लिखित नहीं है,तो उसमें समय और स्थिति के अनुरूप परिवर्तन संभव है| एक समय ऐसा भी आता है,जब प्रमाणों की अनुपस्थिति में इतिहास को भुला दिया जाता है| भारतीय समाज के इतिहास को देखा जाए तो ज्ञात होता है, कि सिर्फ राजा-महाराजाओं और धनी व्यक्तियों का ही इतिहास अधिकतर लिखा गया है| इन राजाओं के दरबारी कवि और लेखक होते थे जो इनकी वीरता के दृष्टान्तों को लिखते थे| राजा से जुड़े दृष्टान्तों में ही आम जन का जिक्र आता था|
ये कहावत भी प्रचलित है कि ‘लड़े फ़ौज और नाम सरकार का’ | अर्थात लड़ाई और युद्ध लड़ने में अदम्य साहस राजा-महाराजाओं द्वारा कम बल्कि सैनिकों द्वारा अधिक दिखाया जाता था| उसके आधार पर ही राजा महाराजाओं की जय-जयकार होती थी| एवं जो वास्तव में लड़ते थे उनका नाम तक नहीं लिया जाता था| वाल्मीकि समाज जिसे वर्तमान में सफाई कामगार जाति के रूप में जाना जाता है| इस जाति का इतिहास हमें बहुत कम पुस्तकों और ग्रन्थों में पढने को मिलता है, जहाँ कहीं पढने को मिलता है उसमें भी दो या तीन पंक्तियों में ही इनका जिक्र होता है| ऐसी लिखित सामग्री बहुत कम है जो विशेष रूप से इस जाति के इतिहास और संस्कृति पर आधरित हों| लेकिन डॉ. प्रवीन कुमार बधाई के पात्र हैं जिन्होंने ‘1857 की क्रांति में वाल्मीकि समाज का योगदान’ नामक पुस्तक लिखी| इस पुस्तक के माध्यम से इन्होंने समाज में दलितों में दलित वाल्मीकि समाज का जो 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में योगदान रहा है, उसका बखूबी वर्णन किया है| इस विषय पर ये इनकी दूसरी पुस्तक है| पहला महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ था, जो स्वतंत्रता संग्राम में सफाई कामगार जातियों का योगदान(1857-1947) नाम से प्रकाशित है| इसके प्रकाशन से सम्मानित इतिहासकारों में इनकी गिनती होने लगी है|
वाल्मीकि समाज जिसे हर कदम पर उपेक्षा का पात्र बनना पड़ता है, उस स्थिति में प्रस्तुत पुस्तक वाल्मीकि समाज की महानता और साहस का महत्वपूर्ण परिचय देती है| लेखक ने 1857 की क्रांति से सम्बन्धित पात्रों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए उनके वंशजों को ढूंढा और उनका साक्षात्कार लिया| जिससे पुस्तक अधिक विश्वनीय और रोचक हो जाती है| अर्थात कठिन परिश्रम के बाद इस प्रकार की पुस्तक तैयार की गई है|
पुस्तक के प्रारम्भ में ही हमें मातादीन वाल्मीकि के जीवन और चरित्र का वर्णन पढने को मिलता है| मंगल पांडे ने जब अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बजाया उससे पहले मातादीन ने ही उन्हें चर्बी वाले कारतूसों की जानकारी दी थी| जिसको आधार बनाकर ही मंगल पांडे ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की थी | मंगल पांडे के बाद अंग्रेजों ने मातादीन को भी फांसी दे दी थी| पुस्तक में 1857 की क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले वाल्मीकि समाज से सम्बन्धित सहजुराम व भगवान सिंह,अजब सिंह व सगवा सिंह, रामस्वरूप जमादार, रूढा भंगी, गंगू मेहतर, आभा धानुक, बालू मेहतर, सत्तीदीन मेहतर, भूरा सिंह, आदि साहसी योद्धाओं के बल व पराक्रम का वर्णन है| महिला क्रांतिकारियों के शौर्य और वीरता को भी पुस्तक में स्थान दिया गया है| महावीरी देवी, रणवीरी देवी, लाजो देवी आदि महिलाओं के क्रांति में योगदान को विस्तार पूर्वक बताया गया है| लेखक ने ऐसे योद्धाओं का भी संक्षिप्त परिचय दिया है, जिनके बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी, किन्तु 1857 की क्रांति में उनका योगदान अमूल्य रहा था| जिनमें गणेसी मेहतर, मातादीन मेहतर, मनोरा भंगी, हरदन वाल्मीकि, रामजस वाल्मीकि, बारू वाल्मीकि, खरे धानुक और दुर्जन धानुक, जमादार रजवार, हीरा डोम आदि का नाम प्रमुख है| 1857 की क्रांति में आमने-सामने की लड़ाई के साथ-साथ वाल्मीकि समाज का सांस्कृतिक योगदान भी रहा था| लोगों तक अपनी बात पहुँचाने और उनमें साहस भरने के लिए ढोल-नगाड़ों,तुरही जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता था| मजमें-तमाशे, सांग,रास नौटंकी जैसे माध्यमों द्वारा लोगों को आकृषित किया जाता था|
जिस समाज का पुस्तकों में जिक्र न के बराबर है, उस समाज का गौरवशाली अतीत पुस्तक के माध्यम से आमजन तक पहुंचाने की कोशिश डॉ.प्रवीन कुमार ने की है| पुस्तक में प्रयुक्त चित्र प्रमाणिक हैं, जोकि लेखक ने स्वयं सम्बन्धित स्थानों पर जाकर और व्यक्तियों से मिलकर लिए हैं| पुस्तक की भाषा सरल और स्पष्ट है| पुस्तक का आवरण पृष्ठ आकर्षक है| प्रस्तुत पुस्तक एक शोध आधारित पुस्तक है, जोकि लेखक ने चौ. चरणसिंह विश्विद्यालय परिसर, मेरठ की एम. फिल. उपाधि प्राप्त करने हेतु प्रस्तुत किया था| यह पुस्तक इतिहास के विद्यार्थियों के साथ आमजन के लिए एक महत्वपूर्ण धरोहर है| पुस्तक उन सभी को भी अवश्य पढनी चाहिए जो वाल्मीकि जाति के बारे में जानने की जिज्ञासा रखते हैं| अंत में कहा जा सकता है कि दलित साहित्य के लिए ‘1857 की क्रांति में वाल्मीकि समाज का योगदान’ प्रवीन कुमार जी द्वारा अमूल्य भेंट है| एक समीक्षक के तौर पर मैं लेखक और प्रस्तुत पुस्तक के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ|
समीक्षक :-
दीपक मेवाती ‘वाल्मीकि’ पी.एच.डी. शोधार्थी इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्विद्यालय(IGNOU) नई दिल्ली| सम्पर्क – 9718385204 ईमेल – dipakluhera@gmail.com