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25 Aug 2022 · 10 min read

*पुस्तक समीक्षा*

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : जीवन यात्रा (उपन्यास)
लेखक एवं प्रकाशक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा ,रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
प्रकाशन का वर्ष: 1997
समीक्षक : डॉ. ऋषि कुमार चतुर्वेदी,
अवकाश प्राप्त हिंदी विभागाध्यक्ष
राजकीय रजा स्नातकोत्तर महाविद्यालय, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
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जीवन यात्रा : एक समीक्षा
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‘ट्रस्टीशिप-विचार’ और ‘गीता-विचार’ में चिंतक रवि प्रकाश ने जिस जीवन दर्शन का विवेचन किया है, उसी का जीवन के बीच विकास दिखाने के लिए उनके कथाकार ने ‘जीवन यात्रा’ नामक उपन्यास की रचना की है। इस तरह के उद्देश्य पूर्ण उपन्यासों में लेखक अपने केंद्रीय विचार के चारों ओर पात्रों, स्थितियों और घटनाओं का ताना-बाना बुनता है। रवि प्रकाश ने भी ऐसा ही किया है। इसके लिए उन्होंने युवा और विचारशील राहुल को अपना कथा नायक बनाया है । राहुल एक करोड़पति पिता का पुत्र है, किंतु उसकी दृष्टि धन केंद्रित न होकर समाज केंद्रित है । एक ओर है अर्थ लोलुप, स्वार्थ परायण भ्रष्ट समाज और दूसरी ओर है राहुल के उच्च विचार और आदर्श, जिन्हें वह जीवन में हर जगह क्रियान्वित होते देखना चाहता है और ऐसा न होने पर उसका भावुक मन विद्रोह कर बैठता है । इन्हीं दो विरोधी स्थितियों के घात-प्रतिघात से उपन्यास का कथानक आगे बढ़ता है और पात्रों का चरित्र ढलता है । ऐसा भी नहीं है कि राहुल के सृष्टा ने उसे (जनवादी कथाकार की तरह) केवल विरोधी स्थितियों से टकराने और टकराकर टूटने के लिए ही छोड़ दिया हो । जहॉं प्रतिकूलताऍं उसका रास्ता रोकती हैं, वहॉं अनुकूलताऍं उसके लिए नए रास्ते खोलती भी हैं और यह सब ऐसे स्वाभाविक रूप में होता है कि कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि लेखक ने जबरदस्ती घटनाओं को मोड़ा है या पात्रों से उनके स्वभाव के विपरीत कोई आचरण कराया है । ट्रस्टीशिप और अनासक्ति योग जैसे शुष्क विचारों को उपन्यास में रोपित करने में एक खतरा यह भी हो सकता था कि रचना नीरस हो जाती, उसकी रोचकता कम हो जाती या पात्र लेखक के विचारों को टॉंगने की खूॅंटी भर बनकर रह जाते । रवि प्रकाश यथासाध्य इन खतरों से बचे हैं । उन्होंने रोचक प्रसंगों की सृष्टि की है और पात्रों के अंतर्वाह्य व्यक्तित्व को उभारा है ।
जीवन की जिस यात्रा पर राहुल निकला है, उसमें उसकी पहली टक्कर अपने पिता से ही होती है । रूपाली से उसका विवाह तय हो गया है किंतु राहुल के पिता दहेज के लिए जिस प्रकार की सौदेबाजी करना चाहते हैं उससे क्षुब्ध होकर राहुल घर छोड़ देता है । ऐसे में उसके खानदान के ही भाई और भाभी उसे समर्थन और सहारा देते हैं और विवाह के बाद रूपाली का ‘डोला’ उन्हीं के घर उतरता है । इस समूचे प्रसंग में रूपाली और राहुल कि प्रणय भावनाओं तथा भाई और भाभी के निश्छल प्यार और विनोद के चित्रण से उपन्यास में सजीवता और रोचकता का संचार हुआ है । रूपाली विवाह से पूर्व ही राहुल के व्यक्तित्व और विचारों से प्रभावित है । इधर, राहुल केवल विचारों का पुलंदा ही नहीं है, एक जीता जागता इंसान भी है, जिसमें एक दिल धड़कता है । अतः वह इस बात को लेकर काफी दुखी हो जाता है कि उसने व्यर्थ अपने पिता का घर त्याग दिया और रूपाली को अभावों के बीच लाकर छोड़ दिया । उसके इस प्रकार दुखी हो जाने पर सुहागरात के उस ”पलंग पर सजी फूल मालाऍं, लगता था, मानों मुरझा गई हों। गेंदे के फूल पीले जरूर थे, पर लगता था, उन्हें पीलिया हो गया है । चमेली के फूल अपनी सफेदी में उदासी ही बिखेर रहे थे ।” इस अवसर पर रूपाली जिस कोमलता के साथ उसके मन की ठेस का उपचार करती है, उससे उसके चरित्र की उदात्तता व्यंजित होती है । उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि लेखक अपने विचारों के संप्रेषण के प्रति ही नहीं, अपनी रचना-धर्मिता के प्रति भी सजग है।
अब उपन्यास का नायक चौराहे पर खड़ा है । जैसा उसका स्वभाव है, वह बहुत दिनों तक किसी पर, विशेषत: अपने मध्य-वित्त भाई-भाभी पर बोझ बनकर नहीं रह सकता । भाई साहब के एक मित्र हैं, सेल्स-टैक्स और इनकम टैक्स के वकील साहनी साहब । भाई साहब की सलाह से वह वकालत करने के इरादे से उनके पास बैठने लगता है । किंतु साहनी साहब जिस प्रकार मुवक्किलों से विश्वासघात और छलकपट करते हैं, उससे उसे वितृष्णा होती है और वह वकील बनने का इरादा छोड़ देता है । अब वह कोई और विकल्प सामने न देख ट्यूशन करता है और इस रूप में वह अपने छात्रों पर अपनी छाप छोड़ता है । इसी बीच राहुल की मुलाकात अपने पूर्व सहपाठी दासगुप्ता से होती है, जो अब मंत्री बन चुका है । दासगुप्ता उसे पहले जैसा ही आदर और प्रेम देता है और पुलिस केस में फॅंस गए उसके निर्दोष भाई साहब को बचाने में पूरी मदद करता है । इस प्रसंग की सृष्टि द्वारा लेखक ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि भ्रष्टाचार कितना व्यापक और जटिल है और इसके लिए किसी एक व्यक्ति को उत्तरदाई नहीं ठहराया जा सकता । दासगुप्ता पार्टी को लाखों का चंदा देकर और लाखों चुनाव में खर्च करके मंत्री बना है, अतः लाखों की रिश्वत लेकर धन एकत्र करना उसकी मजबूरी है । अपना दबदबा बनाए रखने के लिए बदमाश और आवारा आनंद शर्मा को अपनी पार्टी का जिला अध्यक्ष बनाना भी उसकी विवशता है। इसी प्रकार पुलिस अफसर निर्दोषों को फॅंसा कर रिश्वत लेने के लिए बाध्य है क्योंकि उसे भी अपने ट्रांस्फर के लिए मंत्री को रिश्वत देनी है । इसी क्रम में लेखक ने फ्लैशबैक शैली में राहुल के विश्वविद्यालय जीवन के कुछ संस्मरण जोड़ दिए हैं, जो राहुल की चारित्रिक विशेषताओं के उद्घाटन में सहायक हैं । राहुल ने अपने छात्रावास में अपनी छात्रवृत्ति के पैसे से एक वाचनालय की स्थापना की थी और बड़ी तत्परता से उसका संचालन किया था । उसके इस कार्य की प्रशंसा दासगुप्ता भी करता है, जिससे प्रतीत होता है कि मंत्री बन कर भी उसमें अच्छाई का मूल्यांकन करने की क्षमता विद्यमान है । दूसरी ओर, इस चर्चा में आनंद शर्मा की उदासीनता से व्यक्त होता है कि उसकी संवेदना मर चुकी है । इसी प्रसंग में राहुल को अपनी दो सहपाठिनियों का स्मरण भी हो आता है -जो एक दूसरे के सर्वथा विपरीत हैं -“सिम्मी एक कोमल मतवाली कली थी, जिसके रूप पर भौंरे मॅंडराते थे ।” “मीनाक्षी दिये की एक ऐसी लौ थी, जिसे खुद आग में झुलसा दिया था ।” रूपगर्विता सिम्मी पर सभी की नजर थी और कुरूप तथा विकलांग मीनाक्षी की ओर कोई ऑंख उठा कर भी न देखता था। किंतु राहुल ने सिम्मी के वासना पूर्ण मदिर नेत्रों की उपेक्षा और मीनाक्षी की ऑंखों में तैरते दर्द का अहसास करके मानों यह सिद्ध कर दिया कि उसका रास्ता आम आदमी का रास्ता नहीं है।
लेखक अपने नायक को अनेक अनुभवों के बीच से जीवन की विविध विषमताओं का अनुभव कराते हुए लक्ष्य की ओर अग्रसर करना चाहता है और इसके लिए बड़ी सावधानी से कथा सूत्र जोड़ता है । एक क्षेत्र विद्यालयों का है । राहुल को एक विद्यालय की प्रबंध समिति का सदस्य बना दिया जाता है । समिति की बैठकों में वह देखता है कि प्रबंधक और अन्य सदस्य किस प्रकार अपनी झूठी अहम्मन्यता को तुष्ट करने के लिए अध्यापकों को अपमानित करते हैं और विद्यालय के धन तथा संपत्ति का दुरुपयोग करते हैं। राहुल इस का प्रबल विरोध करता है और अंत में अकेला पड़ जाने पर इस्तीफा दे देता है । उसके इस आचरण से उत्साहित अध्यापक जब उसका अभिनंदन करना चाहते हैं तो वह इसे तो अस्वीकार कर ही देता है, साथ ही अध्यापकों की नेतागीरी और शिक्षण कार्य के प्रति उनकी उदासीनता की भर्त्सना करता है। और इस प्रकार अपनी संतुलित दृष्टि का परिचय देता है।
पत्रकारिता एक ऐसा क्षेत्र है, जहॉं जीवन के व्यापक अनुभव प्राप्त हो सकते हैं। राहुल के सामने जीविका की समस्या तो है ही, अंत: लेखक कथानक में कुछ ऐसा संयोग उत्पन्न करता है कि राहुल को एक स्थानीय दैनिक में तीन हजार रुपए मासिक पर संपादक का पद मिल जाता है । वह बड़ी सच्चाई और निष्पक्षता से खबरें छापता है। अतः अखबार की लोकप्रियता बढ़ती है। वह एक कवि सम्मेलन की रिपोर्ट लेने जाता है किंतु वहॉं कवियों में मदिरापान के प्रचार को देख कर उसे बड़ा क्षोभ होता है और वह इसी विषय को लेकर एक लंबा लेख लिखता है, जिसे काफी पसंद किया जाता है । इसी बीच शहर में पहले कुछ मुसलमान मारे जाते हैं, उसके तीन-चार दिन बाद कुछ हिंदुओं की हत्या कर दी जाती है । प्रशासन और जनता सभी की दृष्टि में यह सांप्रदायिक दंगा है किंतु राहुल इस घटना का विश्लेषण बड़ी बारीकी से करके इस निष्कर्ष पर पहुॅंचता है कि हिंदू और मुसलमान दोनों की हत्याऍं एक ही आदमी और उसके ग्रुप ने की हैं। और यह काम सीमा पार के आतंकवादियों का है । किंतु एक दिन राहुल पाता है कि वह अपने कार्य में निष्पक्ष और नैतिक होने के लिए एक सीमा तक ही स्वतंत्र है । वह उन औद्योगिक संस्थानों के दोषों को अपने अखबार में प्रकाशित नहीं कर सकता, जिनके भारी विज्ञापनों से उस अखबार का खर्च चलता है और स्वयं उसे वेतन मिलता है । जैसा उसका स्वभाव है, वह समझौता नहीं कर सकता और इस्तीफा दे देता है।
अब तक लेखक अपने नायक को जीवन और जगत् की अनेक विषमताओं के बीच से निकाल चुका है, किंतु एक पक्ष अभी बच रहा है -वह पक्ष जिसका संबंध इस लोक से नहीं, परलोक से माना जाता है, जहॉं पवित्रता और शांति है और दुनिया से थके-हारे लोग जहॉं विश्राम खोजने आते हैं । अब राहुल की मन:स्थिति भी कुछ ऐसी ही बन गई है । उसे प्रतीत होने लगा है कि यह दुनिया उसके लिए नहीं बनी है । वह संन्यास लेने का फैसला कर लेता है। इस स्थल पर लेखक ने रूपाली के दर्द को समझा है और उसे उसकी संपूर्ण मार्मिकता में व्यक्त किया है । “मैं संन्यास ले रहा हूॅं”- राहुल के इन शब्दों के बोझ तले उसका सारा शरीर, दिल, दिमाग दबकर रह जाता है । उसके ओठ सफेद पड़ जाते हैं और उसका शरीर तेजहीन हो जाता है । क्षण-मात्र में ही वह बरसों की रोगिणी दिखने लगती है और अंत में रूपाली जोरो से चीखती रह जाती है, मगर राहुल घर की चौखट लॉंघता हुआ दूर, कहीं बहुत दूर निकल जाता है ।
थके-हारे हताश राहुल को स्वामी योगेश्वरानंद के स्वर्गधाम में शरण मिलती है । किंतु शीघ्र ही जब उस पर वहॉं का भ्रष्टाचार उजागर होता है तो उसे वह स्वर्गधाम नरकधाम प्रतीत होने लगता है और वह घर लौटने का फैसला कर लेता है। संन्यासी जीवन से मोहभंग की व्यथा, रूपाली को छोड़कर आने की आत्मग्लानि और घर लौटने की बेचैनी को लेखक ने जैसे इन दो वाक्यों में समेट कर समाहित कर दिया हो -“रूपाली, मैं आ रहा हूॅं- राहुल अपने अंतर्मन में कराह उठा । रात के अंधेरे में ही उसने अपना सफर शुरू करने का फैसला कर लिया । घर लौटने पर स्वयं राहुल के, रूपाली और भाभी के मनोभावों का चित्रण करते हुए जिस प्रकार लेखक ने उस संपूर्ण परिवेश को रूपायित किया है उस से ज्ञात होता है कि कथा के संवेदनशील स्थलों की उसे पूरी पहचान है ।
घर लौटने पर राहुल को ज्ञात होता है कि अभी कुछ देर पहले ही उसके पिता का देहांत हो गया है । इस अवसर पर राहुल की यह श्रद्धॉंजलि उसके धीर-गंभीर चित्त के शोक की व्यंजना में पूरी तरह समर्थ है- “अंदर कमरे में पिताजी का शव रखा था । राहुल हाथ जोड़कर एक क्षण खड़ा रहा फिर थके कदमों से उनके पैरों पर हाथ रख कर बैठ गया । उसने देखा पिताजी का चेहरा शांत था । उनके दोनों हाथ खुले हुए जमीन पर सीधे पड़े थे । शरीर पर चादर पड़ी थी ।” “दुखी अंतःकरण से उसने पिता का अंतिम संस्कार किया । चिता में जब उसने अग्नि दी तो वह उन लपटों में बड़ी देर तक आसमान तक ऊॅंचे उठते धुऍं को देखता रहा । शायद वह शरीर के अग्नि और धुऍं के पार तक दीखने वाले संबंधों को जानने की कोशिश कर रहा था ।”
अब राहुल अपने पिता की करोड़ों की संपत्ति का मालिक है किंतु उसके मन में धन संपत्ति के लिए कोई आकर्षण नहीं है- “उसकी दृष्टि में दुनिया भर की सारी दौलत का एकमात्र मालिक भगवान था । इसीलिए उसने पिता की समस्त संपत्ति को मालिक बनकर नहीं अपितु अमानती बनकर स्वीकार किया। अपने पैतृक निवास वैभव सदन को उसने गरीबों के लिए एक सौ बिस्तर वाले अस्पताल में बदल दिया। ××× राहुल ने न सिर्फ वैभव सदन को अस्पताल में बदला, अपितु उसने सूरतपुर के हर कोने में अस्पतालों का जाल बिछा दिया । ××× उसने स्कूल, कालेज, पुस्तकालय भी कई खोले। जितना वह कमाता गया, जनता को बॉंटता गया ।” इस प्रकार लेखक ने एक ‘ट्रस्टी’ के रूप में राहुल के कार्यों का एक संक्षिप्त विवरण भर प्रस्तुत कर दिया है । अपने नायक को लक्ष्य तक पहुॅंचाने के बाद वह उपन्यास के कथानक को शायद आगे बढ़ाने के ‘मूड’ में नहीं था ।फिर भी उपन्यास को समाप्त करने की जल्दी होने पर भी, वह पात्रों के चरित्र चित्रण के प्रति सजग रहा है। अत्यंत संक्षिप्त रेखाओं द्वारा उसने रूपाली का वैभव के प्रति आकर्षण और धीरे-धीरे पति के आदर्शों में ढल जाने की प्रक्रिया को चित्रित किया है । राहुल लोगों के द्वारा अपना अभिनंदन किए जाने की योजना को अस्वीकार कर देता है और वैश्य एकता समिति के संबंध में अपने मौलिक और संतुलित विचार प्रकट करता है । यह सब उसके उस असाधारण चरित्र के अनुरूप ही है, जिसका परिचय अभी तक पूरे उपन्यास में मिलता रहा है ।
प्रस्तुत उपन्यास में चरित्रों और घटनाओं के माध्यम से विचारों की सांकेतिक अभिव्यक्ति तो की ही गई है किंतु लेखक को जैसे मात्र इतने से ही संतोष नहीं हुआ है । उसने स्थान-स्थान पर लंबे-लंबे संवादों या स्वगत चिंतन द्वारा विचारों का सीधा प्रस्तुतीकरण भी किया है। उपन्यास की कलात्मकता को वरीयता देने वाले लोग कह सकते हैं कि इससे कथा-रस के प्रवाह में बाधा पहुॅंची है और औपन्यासिकता आहत हुई है ।इस प्रकार की रचनाओं को वे प्रोपेगंडा साहित्य कह सकते हैं। प्रेमचंद से जब कहा गया कि उनके उपन्यासों में प्रोपेगंडा की प्रवृत्ति मिलती है और इससे रचनात्मकता को क्षति पहुॅंचती है; तो उन्होंने उत्तर दिया कि मेरा मुख्य उद्देश्य अपने विचारों का प्रचार करना है, कलात्मकता मेरे लिए गौण है । शायद रवि प्रकाश का भी यही उत्तर हो ।
रवि प्रकाश का यह प्रथम उपन्यास पढ़कर पूरी आशा बॅंधती है कि वह आगे भी इस क्षेत्र में सक्रिय रहकर अनेक श्रेष्ठ कृतियॉं प्रदान करेंगे।

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