*पुस्तक समीक्षा*
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : सपनों का शहर (लघुकथा संग्रह)
लेखक : अशोक विश्नोई मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 94118 09222
प्रकाशक : विश्व पुस्तक प्रकाशन 304 ए बी/जी-6, पश्चिम विहार, नई दिल्ली -63
संस्करण : 2022
मूल्य : ₹250
कुल पृष्ठ संख्या: 103
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समीक्षक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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अंधेर नगरी की लघु कथाऍं
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अशोक विश्नोई की लघुकथा संग्रह पुस्तक विशेषज्ञ लेखनी की उपज है। आप न केवल लघु कथाएं लिखते हैं बल्कि उनकी समीक्षाएं भी करते हैं । नियमित रूप से “साहित्यिक मुरादाबाद” व्हाट्सएप समूह पर लघु कथाओं के संबंध में आपकी बेबाक राय लेखकों को मिलती है तथा उससे न केवल पाठक बल्कि नए और पुराने सभी लेखक लाभान्वित होते हैं।
लंबे समय से लघु कथा लेखन और समीक्षा के कार्य में संलग्न रहने के कारण आपको लघु कथा की बारीकियों का अच्छा ज्ञान है। किस तरह से बात को शुरू करके एक छोटे से प्रसंग में समेट देना है तथा जो बात कहनी है, वह धारदार तरीके से पाठकों तक पहुंच जाए, इन सब का आपको पता है ।
प्रस्तुत लघु कथा संग्रह में ज्यादातर लघु कथाएं परिपक्वता की दृष्टि से पाठकों को आश्वस्त करने में समर्थ हैं। सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से जेवर, स्वतंत्रता, दरकती नींव, सपनों का शहर, अंधेर नगरी, मेहनत की रोटी, नेता-चरित्र और स्वार्थी नामक लघु कथाओं का उल्लेख किया जा सकता है ।
प्रेरक लघु कथाओं में सीख एक सराहनीय लघु कथा है । जो बात हजारों उपदेशों से समझ में नहीं आती, वही बात जब बच्चों को यह पता चली कि पढ़-लिख न पाने के कारण उनके पिताजी को मेहनत मजदूरी करनी पड़ती है, तब उनकी जीवन चर्या एकदम बदल गई और वह पढ़ने की ओर अग्रसर हो गए। लेखक ने 10-12 पंक्तियों में सचमुच एक अच्छी सीख दी है (पृष्ठ 68 )
नेताओं से जब जनता परेशान हो जाती है, तब वह समय आने पर उन्हें करारा जवाब देती है । जनता का यही आक्रोश समय का फेर (पृष्ठ 93) लघु कथा में उभर कर सामने आया। मतदाताओं ने सिंचाई के लिए नहर की मांग की थी। नेता जी ने बात हवा में उड़ा दी । फिर जब चुनाव के समय वोट मांगने आए तो जनता ने कहा “…जाते समय नहर में स्नान करके जाना जिसमें आपने पानी छुड़वाया था । अब तो नेता जी का मुंह …” इसके आगे लेखक को कुछ लिखने की आवश्यकता भी नहीं थी । लघु कथा का अंत मारक है वह पाठकों को स्वयं सोचने के लिए विवश कर देता है ।
कुछ हॅंसी-मजाक भी लघु कथाओं में हैं । मजबूरी शीर्षक से (प्रष्ठ 21) लेखक ने जो लघु कथा लिखी है उसमें मेहमानों को पंद्रह दिन के बाद घर से भगाने के लिए झाड़-फूंक वाले को बुलाना और उस के माध्यम से मेहमानों को भगाना बढ़िया मजेदार प्रसंग बन गया है ।
किसी भी लेखक की जादुई विशेषता यह होती है कि वह एक ही प्रश्न को दो आयामों से देखे। इस दृष्टि से भूख (पृष्ठ 47) तथा नर्क (पृष्ठ 54) महत्वपूर्ण लघु कथाएं हैं ।
नर्क में लेखक की लघुकथा बच्चों से भीख मंगवाने की त्रासदी की ओर इंगित करता प्रसंग है, तो दूसरी ओर भूख में यह बताया गया है सब बच्चे किसी के इशारे पर भीख मांगने का कार्य नहीं करते । बल्कि अनेक बार वह अपने अंधे माता-पिता की सेवा के लिए भी भीख मांगते हैं अर्थात परिस्थितियों का आकलन तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिए। यह लेखक की बहुत बड़ी समझ है, जो इन दो लघु कथाओं में अभिव्यक्त हो रही है ।
उपदेशात्मकता से भरी हुई लघु कथाएं पठनीयता में अवरोध उत्पन्न करती हैं। दहलीज (प्रष्ठ 18) तथा जिंदा लाश (पृष्ठ 27) ऐसी ही कमजोर लघु कथाएं कही जा सकती हैं।
सपनों का शहर लेखक की प्रतिनिधि लघु कथा है, जिसमें मार्मिकता से पढ़े-लिखे जाने के बाद भी बेरोजगारी की व्यथा आक्रोशित स्वर में व्यक्त की गई है।
जेवर (प्रष्ठ 9) पर आजकल के जमाने में जब तक सास-ससुर के पास धन है, तभी तक उनके महत्व को दर्शाती है।
स्वार्थी (प्रष्ठ 70) एक ऐसी लघु कथा है जिसे पढ़ कर तो समाज-जीवन में लगता है मानो चलती-फिरती फिल्म सामने आकर प्रदर्शन कर रही हो । पेंशन के बल पर माता पिता की घर में इज्जत हो रही है, वरना उन्हें कोई पूछे भी नहीं । लघु कथा बिल्कुल यथार्थ बता रही है ।
आम बोलचाल की भाषा में सीधे-सच्चे तरीके से अपने अनुभवों को लघु कथा के रूप में व्यक्त कर देने के लिए यह संग्रह पहचाना जाएगा । पाठकों को इनकी कथाओं में कथा-रस भी मिलेगा, जो उनके लिए मनोरंजन का साधन भी बनेगा।
अशोक विश्नोई को जीवन के व्यापक अनुभव हैं,इसलिए साहित्य के माध्यम से वह अनेक कड़वी सच्चाइयॉं व्यक्त करने की सामर्थ्य रखते हैं। अंधेर नगरी शीर्षक से (पृष्ठ 52) लिखित लघु कथा इस दृष्टि से उद्धृत करना उचित रहेगा:-
“बहुत दिनों से संगीत साधना में लीन एक महापुरुष को प्रतियोगिता में निर्णायक के लिए आमंत्रित किया गया तो वह निश्चित समय पर वहां पहुंचे। अधिक परिचय न होने के कारण आयोजक की प्रतीक्षा हेतु कुर्सी पर बैठ गये।
पास ही आयोजक और अन्य निर्णायक भी बैठे । उनका वार्तालाप सुन रहे थे। उनमें छात्र-छात्रा को प्रथम, द्वितीय पुरस्कार देने पर बात चल रही थी। तभी एक निर्णायक ने कहा, “हमारे निर्णय का लाभ तो तब होगा जब तृतीय निर्णायक जो बाहर से आ रहे हैं, उनसे तालमेल बैठ जाए। हमें तो जो करना है वह तो करना ही है।”
यह सुनते ही वह महाशय बीच में से उठे और बुदबुदाते हुए अपने घर वापस आ गये। इन लोगों को निर्णायक नहीं समर्थक की आवश्यकता है और मैं कला के साथ खिलवाड़ करने का अपराध नहीं कर सकता।”