पुस्तक समीक्षा-वसीयत ‘उपन्यास’
भाषा बोलना और उस पर लेखन-कार्य करना दोनों का अलग-अलग महत्व है। आम बोलचाल के शब्दों को लेखनी में शामिल करना अपने-आपमें बेमिसाल होता है, क्योंकि शब्दों की लयबद्ध प्रस्तुति या उनका तारतम्य बैठाना भी बहुत बड़ी कला होती है। कुछ ऐसी ही भाषाशैली, संस्कृति व रहन-सहन को जेहन में उतारते हुए ‘वसीयत’ उपन्यास की रचना की है डॉ. सूरज सिंह नेगी ने। उपखण्ड मजिस्ट्रेट के पद पर आसीन आमजन में घुले-मिले डॉ. नेगी का उक्त उपन्यास पारिवारिक संबंधों पर आधारित है, जिसमें उन्होंने उत्तराखण्ड की कुमाऊंनी भाषा को शामिल कर पारिवारिक रिश्तों की महत्ता को उजागर करने का प्रयास किया है। परिवार के मुखिया एक बाप के हृदय में पुत्र-प्रेम को लेकर अथाह वैराग्य, माँ की आँखों में पुत्र की तस्वीर और अनेकानेक स्वप्न जो केवल हृदय में उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं कि कब पुत्र लम्बे अरसे के बाद बड़ा आदमी बनकर आँखों के सामने आएगा तो वे अपने दिल का हाल साझा करेंगे।
‘मुझे यकीं है कभी लौटकर आएगा वो
मैं आज भी नहीं मायूस जाने वाले से’
उर्दू शायर ज़ैदी का उक्त शेयर डॉ. नेगी की लेखनी को सार्थक करता प्रतीत होता है कि किसी के जाने का अफसोस कम हो लेकिन उसके वापस आने की खुशी की तरंगे हृदय में हिलोरें लेती महसूस होनी चाहिएं। परन्तु दृश्य जब विपरीत सामने हो, अतीत वर्तमान के सामने करवट ले चुका हो और स्वप्न जब चकनाचूर प्रदर्शित हो रहे हों तो खुशी कौसों ही नहीं, बल्कि करोड़ों मील दूर जाती प्रतीत होती है। डॉ. नेगी के उपन्यास ‘वसीयत’ में माँ-बाप के हृदय में पुत्र-प्रेम के अनगिनत स्वप्न हैं, लेकिन दूसरी ओर पुत्र को चिन्ता है ख्याति प्राप्त करने की। जिसे तरक्की का पत्र तो जान से भी प्यारा लगता है लेकिन मातृप्रेम के शब्दों का परचा दिखाई नहीं देता। इन्हीं झझांवातों में पहाड़ी क्षेत्र से जीवन की शुरूआत है तो आगे चलकर विदेश की चकाचौंध रोशनी। जिसमें वो सबकुछ तो मिल जाता है जिसके सपनों में खोया रहा उम्रभर, लेकिन वो सुकून, आंचल की छाया और प्रेम के बोल सुनने के लिए तरस जाता है दिल। कुल मिलाकर परिवार, पैसा, नाम व शोहरत इन सभी के तालमेल पर रचित है डॉ. सूरज सिंह नेगी का ‘वसीयत’ उपन्यास। जिसमें केवल परिवार की दासतां नहीं, बल्कि वो कड़वा सच है जो हमें कहीं न कहीं देखने-सुनने को जरूर मिल जाता है।
मनोज अरोड़ा
लेखक, सम्पादक एवं समीक्षक
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