पुष्प
मैं रूप का वो कोष हूँ जो रिक्त नहीं होता
शब्दों से मेरा सौंदर्य व्यक्त नहीं होता।
वसुंधरा के मुखड़े की शोभा हूँ मैं बढ़ाती
भ्रमर को मीठे रस का प्रेमी हूँ मैं बनाती।
संत्रस्त मन को देती हूँ उपहार धैर्य का
फैलाव मेरा जैसे साम्राज्य मौर्य का।
विभिन्न रंग-रूप हैं विविध मेरे आकार
उपयोग मेरा होता हो शोक या त्योहार।
चम्पा चमेली गुड़हल अपराजिता ग़ुलाब
इतने हैं रूप मेरे संभव नहीं हिसाब।
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’