पुष्प हूँ मैं
पुष्प हूँ मैं।
पुहुप कुसुम सुमन फूल
इत्यादि मेरे ही नाम हैं।
मैं पर्याय हूँ
सुंदरता व कोमलता का ।
केंद्र हूँ रंगों व आकर्षण का।
प्रफुल्लित कर देता हूँ मैं
अपने समीप आने बालों को
अपनी मनमोहक सुगंध से
अपने दिव्य स्वरूप से
यही तो संस्कृति है मेरी।
कंटकों का साथ पाकर भी
मैं मुस्कराना नहीं छोड़ता
यही प्रकृति है मेरी।
मैं सरस हूँ, सुकोमल हूँ
मेरे ह्रदय की पीड़ा
साथ के शूल नहीं।
पीड़ा है मेरी
स्त्री से तुलना मेरी।
मुझमें नैसर्गिकता है
उसमें सांसारिकता।
कहाँ मेरी सुकोमल पंखुड़ियाँ,
कहाँ मेरा संवेदनशील शरीर,
कहाँ स्त्री का सुदृढ़ असंवेदनशील हृदय।
वास्तव में अवक्रमन करना है स्त्री का
उसे मेरे जैसा कोमल बताना।
और मुझे स्त्री के जैसा कहना
मुझे कठोर बताना है।
पीड़ा होती है मुझे
जब होती है
मेरी तुलना स्त्री के साथ।
जब होती है पवित्रता की तुलना
बेवफाई और चारित्रिक पतन से।
जब होती है तुलना
मेरे असत्य से अनभिज्ञ
अबोध ह्रदय की,
स्त्री के छल, प्रपंच व असत्य
युक्त मस्तिष्क से।
मैंने सदा ही खिलकर
सुगन्ध विखेरना सीखा है।
मैं कब कहता हूँ
कि सिर्फ मैं ही सही हूँ?
सच कहूँ तो
अलग हूँ मैं स्त्री से
बिल्कुल अलग।
मैं नहीं जानता
घुमा फिरा कर बात को कहना।
मैं नहीं जानता
इधर की उधर करना।
मैं नहीं जानता
किसी को झूंठी प्रसंशा के द्वारा
गहरे घाव देना।
मेरा हृदय नहीं है
छिछला व खोखला
कि भरा जा सके उसमें
अनावश्यक कचरा।
मैं नहीं फँसाता किसी को
प्रेम के ढकोसले में।
मैं प्रेम किसी से
और विवाह किसी और से करने का
निकृष्ट कार्य भी नहीं करता।
पीड़ा होती है मुझे
जब होती है मेरी तुलना
स्त्री के साथ।
सोंच कर बताओ जरा
क्या मैं नज़रें चुराता हूँ?
क्या मैं ईर्ष्या करता हूँ
साथी फूलों से?
जैसे कि स्त्री करती है
दूसरी स्त्री से।
क्या मुझमें लेश मात्र भी
धन, सोना, आभूषण इत्यादि की लालसा है?
क्या मुझे आता है
दिखावा करना?
उत्तर दो मुझे इन प्रश्नों के
और चिंतन करो
क्या स्त्री की तुलना
पुष्प अर्थात मुझसे करना उचित है?
क्या मैंने कभी पहने
भद्दे, अश्लील वस्त्र?
क्या मेरे स्वभाव में
अथवा चरित्र में दृष्टिगोचर है
कोई निम्नता या न्यूनता?
क्या मेरी स्वार्थहीन सुगंध
चोट पहुंचाती है कभी किसी हृदय को?
यदि नहीं तो क्यों
मेरी तुलना वज्रहिय वाली स्त्री से करते हो
क्यों पहुँचाते हो
मेरे कोमल हिय को पीड़ा?
संजय नारायण