*पुष्पेन्द्र वर्णवाल के गीत-विगीत : एक अध्ययन*
पुष्पेन्द्र वर्णवाल के गीत-विगीत : एक अध्ययन
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पुष्पेंद्र वर्णवाल ( 4 नवंबर 1946 – 4 जनवरी 2019 ) बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । ‘साहित्यिक मुरादाबाद’ व्हाट्सएप समूह पर डॉक्टर मनोज रस्तोगी द्वारा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा-सत्र 8 से 10 सितंबर 2022 के मध्य उनके विगीतों के संग्रह प्रणय परिधि : प्रकाशन वर्ष 2006 के 31 गीतों को पढ़ने का शुभ अवसर मिला । विगीत भी मूलतः गीत ही हैं । पुष्पेंद्र जी ने अपने गीतों को विगीत की संज्ञा दी। इससे काव्य-जगत में एक नए आंदोलन को खड़ा करने की उनकी सामर्थ्य का बोध होता है। अपने गीतों को स्वयं एक नई पहचान प्रदान करना तथा उन्हें समकालीन परिदृश्य में अलग से रेखांकित करना कोई हॅंसी-खेल नहीं होता । अपने कथन के समर्थन में पुष्पेंद्र जी ने प्रणय दीर्घा, प्रणय योग, प्रणय बंध, प्रणय प्रतीति, प्रणय पर्व और प्रणय परिधि काव्य-संग्रह प्रकाशित किए । उनके काव्य पर पीएचडी भी हुई है । इन सब बातों से पुष्पेंद्र जी का एक ऐतिहासिक महत्व विशिष्ट रूप से स्थापित हो रहा है।
पुष्पेन्द्र वर्णवाल के गीतों की छटा निराली ही है । उनमें जो प्रवाह है, उस में कहीं भी कृत्रिमता का आभास नहीं होता। कवि का हृदय उसे आवाज देता है और वह मानों उसकी प्रतिध्वनि के रूप में लेखनी को शब्दबद्ध कर देता है । कहीं वियोग की पीड़ा है, कहीं संयोग की मधुर स्मृतियॉं हैं ।
परंपरावादी बिंब विधान भी विगीतों में खूब देखने को मिलता है । आधुनिक कहलाने की होड़ में जिस तरह से बहुत से लोग परंपराओं को हीन भाव से देखने को ही प्रगतिशीलता का पर्याय मानने लगे हैं, ऐसे में हजारों वर्षों से जो पावन प्रतीक समाज को निर्मल करते रहे हैं, उनके प्रति गहरी आस्था का प्रकटीकरण कवि द्वारा हृदय में निर्मलता रखे जाने का ही द्योतक कहा जा सकता है । जहॉं कोई छल कपट नहीं होता, वहीं चीजें मुखौटा पहने बगैर बाहर आती हैं। पुष्पेंद्र वर्णवाल जब गीत रचते हैं, तो मानो उनकी आत्मा से संगीत मुखर होता है। गंगा को भारत की प्रेरणा यूॅं ही नहीं कहा गया । जब पुष्पेंद्र वर्णवाल गंगा की बहती हुई धारा से जीवन में प्रेरणाओं का स्रोत खोजते हैं, तो वह एक आस्थावान मनुष्य के रूप में शताब्दियों से चले आ रहे भारत के अनुपम प्रवाह का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसीलिए उन्हें गंगा की धारा को बहते हुए देखकर कभी यह महसूस होता है कि समय तेजी से आगे निकलता जा रहा है, कभी उस प्रवाह में वह उत्साह और सकारात्मक भावों से भर कर विजय की कामना करते हैं और कभी जीवन में मंगलमय नाद का उद्घोष करके दीपक बनकर समाज को उजियारा देने की आस्था को सॅंजोते हैं । इस दृष्टि से संपूर्ण गीत देखने लायक है:-
गंगा धारधार बहती है
सारे जग से यह कहती है
तुमने क्या यह कभी विचारा
लौटा कभी न काल दुबारा
जीवन में गति स्वयं समय की
मन में भरो भावना जय की
होगा जीवन धन्य तुम्हारा
तुमने क्या यह कभी विचारा
गंगा लिये बहे पावन जल
कल-कल नाद हुआ स्वर मंगल
दीपक बन कर दो उजियारा
तुमने क्या यह कभी विचारा
भाषा के स्तर पर भी पुष्पेंद्र वर्णवाल लोकभाषा-बोली के चितेरे हैं । उन्हें शब्द गढ़ कर लाना अच्छा नहीं लगता । वह तो अनगढ़ शब्दों को अपने गीतों में इस तरह पिरो देते हैं कि वह मणियों की तरह चमकने लगते हैं।उनके गीतों में धाई-धप, ठट्टा लगाना, लत्ता, पीपल से टप-टप, बीमारी में हड़कल आदि शब्द गीतों को दुरूह बनने से रोकते हैं। सामान्य-जन के निकट ले आते हैं और उसी की रोजमर्रा की भाषा में संवाद करते हैं । इसे ही जनवादी और रुचिकर गीतों की संज्ञा दी जा सकती है । इस दृष्टि से निम्नलिखित दो गीत उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किए जा सकते हैं :-
पीपल नीचे धूप-छाँह, खेले है धाई धप
देह सलोनी छाँह बचाती, धूप लगाती ठट्टा
डाल-पात झूमें हैं जैसे उड़े हवा में लत्ता
अनजाने ही गिरी पिपलियाँ, पीपल से टप-टप
ठण्ड न कम हो पाती है लौट-लौट कर आती है
बूढ़ी माँ को धूप चाहिये, पर बादल घिर आये हैं
और जेठ जी माघ मास की पूनो न्हाकर आये हैं
हो बैठी बीमार जिठानी हड़कल है, ठिठुराती है
एक अन्य गीत में जब वह “झप झपा उठी थी कम्पन” कहते हैं तो यह “झप झपा” शब्द स्वयं में ही एक आत्मीय कंपन उत्पन्न करता है। यह कंपन ही पुष्पेंद्र वर्णवाल की विशेषता है ।
कई स्थानों पर पुष्पेंद्र वर्णवाल एक विचारक के रूप में भी अपने गीतों में प्रस्तुति देते नजर आते हैं । वह परिवर्तन के लिए न केवल स्वयं तैयार हैं, बल्कि समाज का भी खुलकर आहवान करते हैं कि वह समय आने पर बिना देर किए नई व्यवस्था लाने के लिए स्वयं को समर्पित कर दे अन्यथा सृजन के अवसर बार-बार नहीं आएंगे। उदाहरण के तौर पर एक गीत की चार पंक्तियां इस प्रकार हैं:-
इन समाजों की व्यवस्थायें हमीं से हैं
हम अगर चाहें इन्हें, तो बदल सकते हैं
सृजन के अवसर मुखर, यों ही नहीं आते
समय पर चूके कहीं तो पिछड़ सकते हैं
गीतकार के जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं, जब उसे वियोग की पीड़ा सालती है । वह महसूस करता है कि अपने हृदय का भेद दूसरों के सामने प्रकट कर देने से अक्सर बात बिगड़ जाती है। गीतकार ऐसे में स्वयं को एकाकी महसूस करता है। उसे लगता है कि उसके जीवन में उसके भोलेपन के कारण ही दर्द का आवास बन गया है । इसी चोट को उसने गीत की निम्नलिखित पंक्तियों के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है:-
एक न तुम ही पास रहे, और अँधेरे रास रहे
मन की बात पराई कर दी, फिर भी दर्द उदास रहे
मुझसे मेरा भेद जानकर तुमने मुझको तोड़ दिया
ऐसा नाता जोड़ा मुझसे, दर्द अकेला छोड़ दिया
जागे से अनुभव है अपने, निदियाये आभास रहे
एक संवेदनशील प्राणी होने के नाते कवि को प्रेम की सुखद अनुभूतियॉं सारा जीवन झंकृत करती रहती हैं । वह प्रेम के दो पल कभी नहीं भुला पाता। इस दृष्टि से एक गीत का शीर्षक कुछ ऐसा ही है :-
आप के गाँव में जो बिताये गये
आज तक क्षण न भूले – भुलाये गये
पत्थर की कुछ खास विशेषताएं होती हैं । गीतकार पुष्पेंद्र वर्णवाल ने एक गीत में इसे दर्शाया है । वास्तव में यह मनुष्य के फौलादी इरादों तथा जीवन-लक्ष्यों के प्रति दृढ़ता का बोध कराने वाला गीत है । यह कठिनाइयों से विचलित न होने तथा परिस्थितियों से जूझने की मनोवृति को प्रणाम करने का गीत बन गया है । इस गीत में अद्भुत जिजीविषा है । आगे बढ़ने का अभूतपूर्व संबल पाठकों को दिया जा रहा है । आप भी पढ़ेंगे तो गीतकार के दृढ़ आत्मविश्वास की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते गीत इस प्रकार है:-
मोम नहीं होता है पत्थर
आँच क्या लगी पिघल गया, यह पत्थर का व्यापार नहीं है
पत्थर, पत्थर ही होता है इसका पारा वार नहीं है
पिघलेगा तो झरना बनकर
बर्फ गिरे या आँधी आये, पत्थर पत्थर ही रहता है
धूप तपे चाहे जितनी भी पत्थर पीर नहीं कहता है
ढल जाता है हाथ परखकर ।।
कुल मिलाकर पुष्पेंद्र वर्णवाल की प्रतिभा बहुमुखी रही है । उनके व्यक्तित्व में एक चिंतक, कवि, प्रेमी, वियोगी और योगी की मानसिकता का अद्भुत सम्मिश्रण देखने को मिलता है। य गीत लंबे समय तक पाठकों को आह्लादित करेंगे।
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समीक्षक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश) भारत
मोबाइल 99976 15451