पुर परबत सी समुन्द्र है
पीर परबत सी समुन्द्र है
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फूल जैसा खूब सुंदर है,
मीत मन में प्रीत अंदर है।
धीर-धीरज शीत मनवा है,
नीर-निर्मल बीच मंदिर है।
जान तन में मीन सी प्यासी,
पीर – परबत सी समुन्द्र है।
जिंदगी झूठी सदा जग में,
मौत दिखती जो बवंडर है।
कौन मनसीरत रहा साथी,
आज दिल्ली कल जलंधर है।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)