पुरोवाक्
पुरोवाक्
सदा काव्य प्रतिभा चहकती चमकती।
नवल भव्य कविता उछलती मचलती।।
भरोसा सभी को दिये बह रही है।
सुकविता छलकती सतत चल रही है।
सदा सृष्टि की जय कहे चल रही है ।
दिवानी बनी प्रेम से फल रही है।
निशा में दिया ले सदा गा रही है।
प्रकाशित जगत को किये जा रही है।
निकल लेखनी से बही जा रही है।
“लगे नेह सबसे” कही जा रही है।
सदा आतुरी प्रेम इसमें भरा है।
सनातन सदा सत्य शिव मन हरा है।
धरा को सुसज्जित सहज कर रही है।
सदा शिष्ट प्रतिभा स्व- रचना यही है।
बने यह सहायक सदा उर्मिला हो।
जगत का सहज मन महा निर्मला हो।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी ।