पुरुष से किस बिधि छल कर सकता हूँ…
मैं ही कृष्ण,
मैं ही केशव,
मैं ही तो हूँ मधुसूदन
मैं ही सहस्रजीत (हजारों को जीतने वाले),
मैं ही सहस्रपात (जिनके हजारों पैर हों)
मैं हर पुरुष के पुरुष्त्व में बसता
मैं लीलाधर,रणछोड़ भी मैं
मैं किस बिधि पहले आ सकता था
किस बिधि पहले द्रौपदी की मान को
बचा मैं सकता था
परुष था मैं, मैं वृषपर्व (धर्म के भगवान)
पहले किस बिधि दुख उसका हर सकता था,
अपनी ही जात से
किस बिधि मैं छल कर सकता था
द्रौपदी सखी थी मेरी, मैं सखा उसका
पर मैं सब पुरुषों में बसा हुआ
अपनी जात के प्रेम जाल में
तनिक अधिक मैं कसा हुआ
मैं अंतर्मयी, मैं ज्ञानी पुरुष, मैं सुमेध (सर्वज्ञानी )
क्या भेद कोई मुझ से छुपा रह सकता था
वो अग्नि से जन्मी अबला थी
वो पहले -पहल औरत थी
फिर नार पराई, दूजे घर थी गई व्याही
अंत में जाकर मेरी सखी
मैं प्रथमे उसे तजता किस बिधि नही
सब भाई बंध को पहले किस बिधि चुनता नही
जब थी चीर हरण की बात चली
रजस्वला स्त्री की घसीट बालों से जब
जंघा पर बैठाने की टेढ़ी घात चली
मैं तब भी चाह के कुछ कर सकता था
दुर्योधन-दुःशासन को
मैं तभी दंडित कर सकता था,
मैं स्वरूप बिकराल धर सकता था
आकण्ठ मैं स्वयं उन में विराजमान हो सकता था
पर किया नही, कर नहीं मैं सकता था
अपनी जात को छल नही मैं सकता था
पर आया था मैं, चीर सखी को बढ़ाया था मैं
चीर का ढेर लगाया था मैं,
मौन सभा में, आँखे सब की झुकाया था मैं
देर भई, उस देरी के बिना
पुरुष का पुरुष्त्व बचने नही मैं सकता था
उस प्रथा का प्रथमा नही मैं बन सकता था
आज भी देखो, आँखे मूंदे मैं रहता हूँ
न्याय में भी तो मैं ही बसता हूँ,
बस अब मैं मौन रहा करता हूँ
लुटती हुई सखी, छिपा हुआ मैं कान्हा
सब जग को सोये मैं रखता हूँ
सखी को जात धर्म में बटते
टुकुर-टुकुर मैं तकता हूँ
न्याय की बेदी पर उसको
दिन रात नंगा देखा करता हूँ
पर पुरुष हूँ, पुरुषों में उत्तम
नारी को पुरुषों के ऊपर किस बिधि रख सकता हूँ
पुरुष से किस बिधि मैं छल कर सकता हूँ…
…सिद्धार्थ