पुराने शहरो के….
फिलबदीह से हासिल ग़ज़ल
पुराने शहरो के मंजर निकलने लगते है।
फूल भी ज़मीन-ए-बंजर निकलने लगते है।
हवा से सीखा है इक नया हुनर हमनें।
आजकल ख्वाब बिन पर निकलने लगते है।
गमों–रूसवाईयों–मायूसियों की देख इंतहा।
दरीचों से भी उम्मीदों के सर निकलने लगते है।
गिरे दरख़्त वही अकड़ बेइंतहा थी जिनमें।
झुके से शाख कर बसर निकलनें लगते है।
मुकम्मल है न आसां जीस्त कटती।
पैदाइश से ग़मों के सफर निकलने लगतें है।
खामोश बहती दरियाओं में अब।
लहर-लहर पर भँवर निकलने लगतें है।
लहलहाती सी फसल में भी -ए-सुधा।
खरपतवार -ए-ज़बर निकलने लगतें है।
सुधा भारद्वाज
विकासनगर उत्तराखण्ड़