पुरानी पीढ़ी की चिंता
एक दिन गजब हो गया ,
एक किस्सा अजब हो गया।
एक विद्वान मुझे एक यात्रा में टकराया ।
मेरी डायरी औऱ कलम देख के मुस्कराया।।
बोला बेटा!मोबाइल के जमाने मे भी लिखते हो।
लगता है शिक्षा के क्षेत्र में रुचि रखते हो।।
क्या आधुनिक दुनिया से अनभिज्ञ हो?
या पुरानी दुनिया के मर्मज्ञ हो।।
मैंने कहा-
बाबूजी ! मैं मोबाइल से ही सीख के आया हूँ।
लिखने वालों को ही मोबाइल में सुनके आया हूँ।
मेरी समझ बस इतना आया है।
लिखने वालों ने ही डंका बजाया है।।
बाबूजी खुश हो कर बोले-
बेटा दुनिया तो बस फोन में ज्ञान देखती रहती है।
पुस्तको से तो कोसो दूर रहती है।
ये कैसा युग आ गया बेटा,
फोन से बाप भी हो गया छोटा।
इतना कहते ही बाबूजी की आँख से आँसू झलक गए।
और वो फफक फफक कर रोने लग गए।
मैंने बाबूजी को अपने कंधे पर लिटाया।
अपनी बोतल से पानी पिलाया।
बाबूजी ! आप इतना परेशान क्यो हो?
इस मोबाइल को लेकर हैरान क्यो हो?
बेटा चार बेटो को पढ़ाया लिखाया।
अच्छे संस्कारो से सुयोग्य बनाया।।
पर इस मोबाइल ने एक काम कर दिया।
मेरे बेटो को ही मुझ से दूर कर दिया।।
बेटा मेरा तो बुढ़ापा है कट जाएगा।
पर ये देख मेरा पोता किताबो से दूर हट जाएगा।
फोन में आ रहे अश्लील दृश्यों में रंग जाएगा।
संस्कारो औऱ आदर्शों से कोसो दूर जाएगा।।
बेटा कुछ ऐसा लिख दो जो फोन केवल साधन रह जाये।
हमारी भारतीय संस्कृति औऱ मूल्यों के आँगन रह जाये।।
प्रवीण भारद्वाज✍️