पुनरावृत्ति
आज बूढ़ी हो चुकी मेरी माँ
कुछ-कुछ बेटी सी
प्रतीत हो रही है,
कल थी मैं जिसकी बाहों के घेरे में
आज गोद में मेरी झूल रही है…
कुछ पाने के लिए
कभी जिद कर बैठती है
न मिलने पर
मुँह फुला रूठ जाती है,
समझाती हूँ मैं
जैसे मुझे थी बहलाती
आज वो मुझसे
माँ सी ममता है चाहती…
मेरी गोद में सर रख
लोरी सुनना है चाहती
अक्सर सहानुभूति पा
उसकी आँखें भर आतीं,
आजकल वो मुझको
बिल्कुल बच्ची नज़र आती है
कल माँ थी मेरी
आज बेटी नज़र आती है…
उसकी सिकुड़ी त्वचा में
है कुछ कोमलता
बिन दाँतों वाले मुख में भी
है कुछ सजलता,
बुढ़ापे में दिख रहा
भोला सा बचपन
शायद धीरे-धीरे छोड़ रहा
जीवन का अचकन…
लग रहा मुझे
ज़िन्दगी है ओस सी
पर्णों से फिसल रही
माटी में समाई सी,
मन ही मन सोच रही
कैसी हो रही आवृत्ति
बुढ़ापे में बचपन की
कैसी हो रही पुनरावृत्ति।
रचयिता—
डॉ. नीरजा मेहता ‘कमलिनी’