पुत्र एवं जननी
पुत्र बिना जननी है अधूरी, जननी बिन है पुत्र अनाथ।
दोनों पूरक एक – दूजे के, चलता जग दोनों के साथ।।
लोगों से परिवार की शोभा, शोभित होते सभी समाज।
समुदायों के संख्या बल से निर्मित होता एक स्वराज।।
पालन पोषण करती भूमि, तभी तो कहलाती माता।
अंक में अपने भर भर लेती, जोड़ती है निर्मल नाता।।
केवल जन्म देने वाली ही, नहीं कहाती महतारी।
शरण और भोजन देने वाली भी होती मैय्या प्यारी।।
जग में जैसे होती तिरस्कृत स्त्री कोई संतान विहीन।
वैसे ही सूनी ये धरती कोख है जिसकी लोक विहीन।।
जन्मभूमि संतान का गौरव, जननी का गौरव संतान।
आदर, नेह, समर्पण से ही बनता है वो राष्ट्र महान।।
राष्ट्र, लोक और जन्मभूमि का रहता है निश्चल संबंध।
मन से मन के तार जोड़ता जीवित रखता है अनुबंध।।
रिपुदमन झा ‘पिनाकी’
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित एवं मौलिक