पुत्रमोह
अपने संतान को काबिल और संस्कारी बनाना करोड़ों की संपति अर्जित करने से ज्यादा बेहतर होता है।
रूदल सिंह का एकलौता बेटा था—रविकांत। जब उसका जन्म हुआ, तो रूदल सिंह ने पूरे गाँव में मिठाई बाँटी थी। तीन दिनों तक उनके दरवाजे पर अंग्रेजी बाजा बजा था। जन्म के छठे दिन पूरे गाँव को पूरी-बुँदिया और आलूदम का दंगल भोज कराया गया था। रूदल सिंह दिल और दौलत दोनों के धनी थे। उनके पास ठेकेदारी का अच्छा-खासा पैसा था और उनकी पत्नी, मनोरमा देवी, का सरकारी स्कूल का वेतन भी था। इसके अलावा, सूद-ब्याज का अलग से पैसा था। पुत्र के जन्म के अवसर पर दोनों ने दिल खोलकर धन लुटाया था। उस भोज में बड़े-बड़े हाकिम-अधिकारी भी आए थे। आखिर, पत्नी सरकारी टीचर और एक अच्छे ठेकेदार का फंक्शन था, तो अधिकारी-इंजीनियर का आना स्वाभाविक था। गाँव के लोग रूदल सिंह की खूब तारीफ कर रहे थे। रात में वीआईपी मेहमानों के लिए खास इंतजाम था—अंग्रेजी शराब और उम्दा किस्म का चखना। रविकांत के जन्म के मौके पर हुए इस भोज की चर्चा पूरे इलाके में कई दिनों तक होती रही।
रविकांत अब धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था। जब वह पाँच साल का हुआ, तो उसका नामांकन एक अच्छे स्कूल में करवाया गया। वह बस से स्कूल जाता और बस से ही घर लौटता। जिस दिन बस नहीं आती, रविकांत स्कूल नहीं जाता था, बल्कि घर पर ही रहता, लेकिन नाममात्र के लिए। रूदल सिंह जैसे ही किसी काम से घर से बाहर निकलते, रविकांत भी घर से बाहर जाने के लिए उतावला हो जाता। वह अपने हमउम्र बच्चों के साथ दिनभर के लिए गायब हो जाता था। वह जिन बच्चों के साथ खेलता, उन्हीं से कभी-कभी झगड़ा भी कर लेता। चाहे रविकांत लड़ाई में मार खाकर आए या मारकर, उसकी माँ, मनोरमा देवी, शिक्षिका होते हुए भी गंवारों की तरह चिल्लाती थी और अपने बेटे को निर्दोष साबित करने के लिए हर संभव तर्क देती थी।
उस दिन शाम का समय था। जुलाई का महीना था और उमस के कारण सब बेचैन थे। रूदल सिंह अपनी गर्दन पर एक साफ़ और सफेद गमछा रखे, उघाड़े बदन कुर्सी पर बैठे थे। बावजूद इसके, पसीना उनके चेहरे और गोल-मटोल पेट से लुढ़क रहा था, जिसे वे बार-बार गमछे से पोंछ रहे थे। वे कुर्सी पर बैठे थे, लेकिन उनके पैर सामने रखे छोटे टेबल पर थे और वे धीरे-धीरे पैर हिला रहे थे। उनके सामने एक छोटा टेबल और दो कुर्सियाँ आगंतुकों के लिए रखी थीं। तभी उनकी पत्नी, मनोरमा देवी, आकर बोलीं, “सुनते हैं, कुछ ठंडा या गरम ले आएं?”
रूदल सिंह बोले, “गरम-गरम को काटता है, श्रीमती जी। आज बहुत गरमी है, चाय ही ले आइए।”
मनोरमा देवी दालान से अंदर चली गईं। तभी गाँव का एक हमउम्र व्यक्ति, राम नरेश, आकर बोला, “का हो भाईजी, कि हालचाल?”
रूदल सिंह बोले, “अरे, नरेश भाई, आओ-आओ, बैठो। हमारा हालचाल तो बढ़िया है, अपना बताओ।”
राम नरेश ने कहा, “इस गरमी में क्या हालचाल, भाईजी? जो है, सब ठीक ही है।”
रूदल सिंह ने पूछा, “और कोई खास बात?”
राम नरेश ने हिचकते हुए कहा, “एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगे?”
रूदल सिंह हँसते हुए बोले, “अरे, नरेश भाई, हम भईयारे हैं, बुरा क्यों मानेंगे? बेझिझक कहो।”
राम नरेश ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, “कल मेरे दरवाजे पर कोई लड़का बोल रहा था कि तुम्हारा रविकांत संठी (एक तरह की छोटी लकड़ी) को बीड़ी बनाकर पीता है।”
रूदल सिंह चौंककर कुर्सी पर सीधा होते हुए बोले, “क्या? ये क्या बोल रहे हो, नरेश भाई? मेरा लड़का संठी को बीड़ी की तरह पीएगा! यह क्या सुन रहा हूँ? न मुझे आप पर विश्वास हो रहा है न अपने कानों पर।”
इतने में, मनोरमा देवी दो कप चाय लेकर निकलीं। उन्होंने राम नरेश को अपने पति के साथ बैठे देखा, लेकिन उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि राम नरेश उनके यहाँ बराबर आते-जाते रहते थे। जब रूदल सिंह ने देखा कि पत्नी सिर्फ दो कप चाय लाई हैं, तो बोले, “एक कप चाय और हो सकती है क्या? नरेश भाई भी पीएंगे।”
मनोरमा देवी ने कहा, “दो कप हैं न, एक उन्हें दे दीजिए। मैं बाद में पी लूँगी।”
राम नरेश ने विनम्रता से कहा, “नहीं, नहीं, भौजी, मुझे चाय नहीं चाहिए। आप तो जानती हैं, मैं चाय को ज्यादा पसंद नहीं करता। आप दोनों चाय का आनंद लीजिए, मैं चलता हूँ।”
यह कहकर राम नरेश कुर्सी से उठे और चलते बने।
जब राम नरेश चले गए, तो रूदल सिंह ने चाय की एक घूँट लेते हुए कहा, “सुनती हो, आज नरेश भाई क्या कह रहे थे?”
“क्या कह रहे थे?”
“वह कह रहे थे कि रविकांत संठी को बीड़ी बनाकर पीता है।”
इसे सुनते ही मनोरमा देवी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। मनोरमा देवी सब कुछ सह सकती थीं, लेकिन अपनी संतान की बुराई सुनने का साहस उनमें नहीं था। वह रुदल सिंह की आंखों में आंख डालकर तमतमाते हुए बोलीं, “उन्हें किसने कहा कि मेरा बेटा ऐसा करता है? मेरा बेटा ऐसा कर ही नहीं सकता!”
“सो तो उन्होंने नहीं बताया। कह रहे थे कि उन्होंने अपने दरवाजे पर कुछ बच्चों को बातें करते सुना था।”
“वही तो, झूठी बात है, तो वे किसी का नाम कैसे बताते?”
“ठीक है, आप कहती हैं तो सही ही होगा। लेकिन एक बार रविकांत से पूछ लेने में हर्ज क्या है? बच्चों की हर अनुचित मांग को आसानी से पूरा करना, उन्हें जिद्दी और मनमौजी बना देता है। यह बात भी आपको समझनी चाहिए।”
“ठीक है। आप चिंता न कीजिए। मैं पूछ लूंगी। आप उससे कुछ नहीं कहिएगा। आपकी बात से वह बहुत चिढ़ जाता है।”
तब तक शाम हो चुकी थी। हवा चलने के कारण उमस भी काफी कम हो गई थी। रुदल सिंह अंदर गए, कपड़े पहने और गाड़ी निकालकर इंजीनियर, ओवरसियर, और स्थानीय नेताओं का दरबार लगाने निकल पड़े।
रुदल सिंह की लाख कोशिशों और पैरवी के बावजूद, रविकांत मैट्रिक की परीक्षा में फर्स्ट डिवीजन से पास नहीं कर सका। किसी तरह, सेकंड डिवीजन से रुदल सिंह ने अपने बेटे को पास करवाया। मास्टरनी के बेटे का ऐसा रिजल्ट! गाँव के लोग जहाँ-तहाँ बातचीत करते थे—क्या-क्या नहीं किया रुदल सिंह ने अपने रविकांत को अच्छे डिवीजन से पास कराने के लिए, लेकिन नहीं करवा पाए। जबकि शंभू लोहार का बेटा और मरण पंडित का पोता तक फर्स्ट डिवीजन से पास हो गया, लेकिन रविकांत…। कुछ लोग कह रहे थे, “शिक्षा पैसे से थोड़े ही खरीदी जा सकती है। जो मेहनत करेगा, वही शिक्षा प्राप्त करेगा। यदि शिक्षा बिकने लगे तो कोई गरीब का बच्चा न पढ़ेगा, न आगे बढ़ेगा।” कुछ लोग तो बोल रहे थे, “रविया पास कर गया, यही गनीमत है। कौन सा नशा है जो वह नहीं करता है? अभी पंद्रह-सोलह बरस का ही है और सब अमल उसके पास हो गया है। क्यों न हो? पैसे से उसका माता-पिता बौरा गए हैं।” जितने लोग उतनी बातें।
अब रुदल सिंह को अपनी इज्जत बचानी थी। अपने पुत्र के नशाप्रेमी होने की भनक उन्हें पहले ही लग चुकी थी। लेकिन उन्होंने अपनी आंखों से कभी कुछ देखा नहीं था। मनोरमा देवी जब रविकांत के कपड़े साफ करती थीं, तो कभी-कभी उसकी जेब से गुटखा के पाउच, सिगरेट का मसाला आदि मिल जाते थे। पूछने पर वह कोई न कोई बहाना बना देता था। इस बात को मनोरमा देवी ने रुदल सिंह से पूरी तरह छिपा लिया था। बेटे को सुधारने के लिए पति-पत्नी ने गहन विचार-विमर्श किया। गाँव में रखकर पढ़ाना संभव न जान पड़ा। अंततः रविकांत को बेंगलुरु के किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में बी.टेक. कराने का निर्णय किया गया। फैसला ही नहीं लिया गया, बल्कि रुदल सिंह खुद बेंगलुरु जाकर उसका नामांकन वीआईटी में करवा आए। जब वहाँ से लौटे, तब शकुन महसूस किया। रुदल सिंह से ज्यादा शांति मनोरमा देवी को मिल रही थी।
पहले सेमेस्टर के लिए निर्धारित सभी शुल्क रुदल सिंह चुका कर आए थे। रविकांत के पॉकेट खर्च के लिए भी नकद देकर आए थे। लेकिन तीन महीने बीतते-बीतते, रविकांत ने अपनी माँ को फोन कर और पैसे भेजने को कहा। जब माँ ने यह बात रुदल सिंह को बताई, तो वह उखड़ गए। “कैंटीन में चाय-नाश्ते के अलावा वहाँ और क्या खर्च हो सकता है? उस खर्च के लिए जरुरत से ज्यादा पैसे देकर आया था। कैसे उसके पैसे खत्म हो गए? इस बार फोन आएगा तो मुझसे बात कराइएगा।” इतना कहकर रुदल सिंह बाहर जाने को हुए, तो मनोरमा देवी बोलीं, “सुनिए, आप तुरन्त मेरे रविकांत पर गुस्सा हो जाते हैं, उसे गलत समझने लगते हैं। उससे पूछताछ मत कीजिएगा। पहली बार पैसा मांगा है, भेज दीजिए।” पत्नी की बात सुनकर उन्हें कोई ताज्जुब नहीं हुआ, क्योंकि मनोरमा देवी इस तरह का बचाव कई बार कर चुकी थीं।
चौथे सेमेस्टर के अंत तक, वीआईटी में भी रविकांत की पढ़ाई का अंत हो गया। गलत आचरण के कारण और बार-बार आंतरिक परीक्षा में फेल होने के कारण उसका नाम संस्थान से काट दिया गया। रविकांत अपने घर लौट आया। लेकिन, स्वजातीय लोगों को रुदल सिंह के बेटे की इंजीनियरिंग की पढ़ाई की बात जंगल में आग की तरह फैल चुकी थी। कई लोग अपनी बेटी का हाथ रविकांत को देने के लिए उतावले हो रहे थे। क्यों न हो? देखने में सुंदर, सलोना नौजवान, बातचीत में कुशल, भावी इंजीनियर, माँ शिक्षिका, कोई भाई न, कोई बहन नहीं, रुदल सिंह दंपति का इकलौता वारिस। लड़की वालों की लाइन लगने लगी। लगन का सीजन था। लड़का भी संयोगवश घर आया हुआ था। रुदल सिंह और मनोरमा देवी को अपने पुत्र की नालायकी के बारे में सब कुछ मालूम हो चुका था। दोनों पति-पत्नी इस बात पर सहमत हो गए कि किसी अच्छे घर में अभी विवाह न हुआ, तो बाद में जब उसके निष्कासन की बात सबको मालूम हो जाएगी, तो शादी भी मुश्किल हो जाएगी। इस समय किसी अच्छे लड़की वाले से पूरा तिलक-दहेज लेकर उसकी शादी कर देना बुद्धिमानी है।
लड़की वाले ऐसे सुअवसर से कब चूकने वाले थे? बहुत से लोग आए, परंतु खाली हाथ लौट गए। शादी-विवाह तो पूर्व निर्धारित होता है। लड़का-लड़की का जोड़ा ऊपर से ही बनकर आता है। एक रेलवे में ठेकेदारी करने वाले व्यक्ति ने सबसे अधिक कीमत लगाकर अपनी बेटी डिंपल की शादी रविकांत से पक्की कर ली। पहले लोग गीत गाते थे—”रुनकी-झुनकी बेटी दीह पढ़ल लिखल दामाद हे छठी मैया”, लेकिन वर्तमान समय में लोग कमाऊ दामाद पसंद करते हैं। बेटी के जन्म के समय नाक सिकोड़ते हैं और बेटे की शादी के समय सुंदर-सुशील बहू खोजते हैं। ठेकेदार की बेटी! जहाँ घूसखोर इंजीनियर, भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों का जमावड़ा लगता हो, वहाँ के बच्चे भी कुछ न कुछ तो सीख ही जाते हैं। दोनों घर का एक ही खेल था—उधर भी ठेकेदारी का खेल, और इधर भी वही खेल, बड़ा अच्छा मिलन। शादी जल्दी-जल्दी हो गई, और डिंपल और रविकांत का मिलन हुआ। दोनों एक-दूसरे के हो गए।
दोनों के बीच का बंधन इतना मजबूत हो गया कि रविकांत और मनोरमा का बंधन भी कमजोर पड़ने लगा। महीनों संग रहने के बाद, उसकी पत्नी डिंपल ने रविकांत से पूछा, “आपकी पढ़ाई पूरी हो गई है या अभी बाकी है?”
“पूरी हो भी गई और बाकी भी है,” रविकांत बोला।
“मतलब? पापा तो कह रहे थे कि आप एक महीने के बाद बेंगलुरु चले जाएंगे,” डिंपल ने संदेहात्मक मुद्रा में सवाल किया।
“मतलब यह कि थोड़ी सी पढ़ाई बाकी रह गई है। कभी जाकर पूरा कर लूंगा। वैसे लोग नौकरी के लिए ही तो पढ़ते हैं, और मुझे नौकरी की क्या जरूरत? सच बताऊं तो मैं तुमसे अलग नहीं होना चाहता। मन कर रहा है कि यहीं रहकर अपना कोई काम पापा से कहकर शुरू कर दूं। नौकर बनकर रहने से अच्छा मालिक बनकर रहूं तो क्या हर्ज है? तुम्हारा क्या ख्याल है?” रविकांत ने अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए बहुत ही चालाकी से जवाब दिया।
डिम्पल अभी दुनिया की चालाकियों और साजिशों से पूरी तरह वाकिफ नहीं थी। हालाँकि उसने थोड़ी बहुत बातें अपने पापा के दोस्तों से जरूर सीखी थीं, लेकिन फिर भी वह भोली-भाली थी। उसे यह समझ में नहीं आया कि रविकांत उसे ऐसा क्यों कह रहा है। वैसे भी नई-नई शादी के बाद कौन सा पति-पत्नी अलग रहना चाहते हैं? इसलिए उसने भी सोचा कि अगर पति भी साथ रहना चाहता है, तो इसमें बुरा क्या है। उसने यह भी सोचा कि रविकांत, जो सिगरेट और शराब को माता-पिता से छिपाकर पीता है, उसे वह धीरे-धीरे समझाकर सही रास्ते पर ला सकती है। एक पल के लिए यह सोचकर वह बोली, “मैं क्या कह सकती हूँ? जो आपको अच्छा लगे, वह कीजिए। मैं तो आपकी पत्नी हूँ और मुझे अपने पत्नी-धर्म का पालन करना ही होगा।”
“तो फिर यह बात पक्की समझो,” रविकांत ने कहा।
शादी को अभी तीन महीने ही हुए थे कि सास-बहू के बीच तकरार शुरू हो गई। मनोरमा देवी ने कुछ दिनों तक तो इस तकरार को सहन किया और अपने सारे अरमानों को मन ही मन मारती रहीं। लेकिन समय के साथ, हालात और बिगड़ने लगे। साल पूरा होते-होते गाँव के लोग रुदल सिंह और रविकांत के बीच चल रही अनबन की खबर से वाकिफ हो चुके थे, और कई बार उन्होंने दोनों को समझा-बुझाकर मामले को शांत भी कराया था। लेकिन एक दिन रविकांत अपनी हद पार कर गया और अपने ही माता-पिता के खिलाफ थाने में जाकर शिकायत दर्ज करा आया। जब दरवाजे पर पुलिस पहुँची, तो सभी हैरान रह गए। कुछ लोग इकट्ठा हो गए और आपस में बातें करने लगे। भीड़ में एक व्यक्ति बोल रहा था, “इनके यहाँ का यह कोई नया मसला नहीं है। जो आज हो रहा है, वह तो उनकी अपनी करनी का फल है। अगर उन्होंने अपने बच्चे को समय रहते संभाल लिया होता, तो आज यह नौबत नहीं आती।”
दरोगा ने मनोरमा देवी को बुलाकर कहा, “आपके बेटे का आरोप है कि आप और आपके पति दोनों मिलकर उसे और उसकी पत्नी को घर से निकालना चाहते हैं। आप लोग घर के सभी दरवाजों पर ताले लगाते हैं और रात में लाठी-डंडे लेकर उन्हें मारने-पीटने की धमकी देते हैं।”
दरोगा जी ने शिकायत की प्रति पढ़कर जब मनोरमा देवी और रुदल सिंह को सुनाई, तो वे सन्न रह गए। मनोरमा देवी की आँखों में आँसू आ गए। आज रुदल सिंह की प्रतिष्ठा भी किसी काम की नहीं थी। इंसान सारी दुनिया से जीत सकता है, लेकिन अपनी संतान से हार जाता है। जो रुदल सिंह कभी पूरे गाँव से लोहा लेने का दम रखते थे, आज अपने ही बेटे के आगे बेबस थे। मनोरमा देवी की आवाज़ गले में ही घुटकर रह गई थी।
दरोगा ने कहा, “रूदल बाबू, आप कुछ कहना चाहते हैं या फिर मैं अपनी कार्रवाई शुरू कर दूं?”
रूदल बाबू कुछ कहने ही वाले थे कि मनोरमा देवी ने रुआँसे स्वर में दरोगा जी से कहा, “साहब, जो कुछ भी हुआ है, उसके लिए मैं खुद को जिम्मेदार मानती हूँ। आज जो स्थिति बनी है, वह इसलिए कि मैंने अपने बेटे को बिगड़ने से रोकने के बजाय उसे और बढ़ावा दिया।”
रूदल सिंह बोले, “दरोगा साहब, रविकांत हमारा इकलौता बेटा है। जो कुछ भी सही या गलत तरीके से संपत्ति अर्जित की, वह सब उसी के लिए किया। आज भी वही हमारी सारी संपत्ति का हकदार है। लेकिन संपत्ति हमेशा सुख ही नहीं देती, कभी-कभी यह अपार दुख का कारण भी बन जाती है। माँ के अंधे प्यार की वजह से हमारा बेटा पूरी तरह से बर्बाद हो गया है। आज वह अपना विवेक खो चुका है, लेकिन जब उसे अपनी गलतियों का अहसास होगा, तब वह बहुत पछताएगा। हमने उसकी हर गलत मांग को मानकर उसे मनमाना बना दिया, और आज यही सब देखने को मिल रहा है। लेकिन सारी संपत्ति तो आखिर उसकी ही है। हमारे लिए अब जो पेंशन मिलेगी, उसी में गुज़ारा हो जाएगा।” इतना कहकर रूदल सिंह चुप हो गए और दरोगा जी की ओर ऐसे देखने लगे जैसे कसाई के सामने बकरा खड़ा हो।
दरोगा जी ने एक पिता के दर्द को समझते हुए कहा, “रूदल बाबू, आप इस इलाके के सम्मानित व्यक्ति हैं। मैं आपसे आग्रह करूंगा कि इस मामले को घर में ही निपटा लीजिए। सरकारी मुलाजिम के तौर पर मुझे तो कार्रवाई करनी ही पड़ेगी, लेकिन एक पिता के तौर पर मैं समझता हूँ कि बच्चे को संस्कार और सही शिक्षा देना करोड़ों की संपत्ति से कहीं ज्यादा जरूरी है।”
फिर दरोगा जी ने रविकांत से कहा, “देखो बेटा, ये तुम्हारे माता-पिता हैं। ये तुम्हारे दुश्मन नहीं हैं। जब घर की बातें थाने तक पहुँचेंगी, तो घर की इज्जत खत्म हो जाएगी। रातभर का समय देता हूँ, सोचकर फैसला करना।” इतना कहकर दरोगा जी गाड़ी में बैठे और चले गए।
अगले दिन दोपहर में दरोगा जी दोबारा आए। इस बार रुदल सिंह का घर एकदम शांत और सुनसान था। दरवाजे पर कोई नहीं था, रविकांत भी घर पर नहीं था। केवल डिम्पल घर में थी। सिपाही ने आवाज़ लगाई, लेकिन कोई बाहर नहीं आया। दरोगा जी धीरे से बोले, “कल समझाकर गए थे, लेकिन लगता है कुछ नहीं किया और गिरफ्तारी के डर से भाग गए होंगे।”
तभी गाँव का एक व्यक्ति आया और दरोगा जी को एक बंद लिफाफा थमाया। दरोगा जी ने वहीं खड़े-खड़े लिफाफा खोला। उसमें लिखा था, “हम अपने कर्म का फल भुगतने भगवान के दरबार में जा रहे हैं। अब आपको हमें गिरफ्तार कर कोर्ट में हाजिर करके रविकांत को उसका हक दिलाने के लिए कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा। आपका सलाह आपकी महानता थी और जांच-पड़ताल आपका कर्तव्य। जो कुछ भी रविकांत के द्वारा किया गया वह माँ के अंधे प्यार का नतीजा था। शुभ विदा। आपका – रूदल दंपत्ति।”
दरोगा जी ने सिर से टोपी उतारकर हाथ में ली और सामने खड़ी उदास डिम्पल से बोले, “कहाँ है तुम्हारा पति रविकांत?” उनकी आवाज़ में गुस्सा साफ झलक रहा था। तभी रविकांत हड़बड़ाते हुए आया और दरोगा जी के सामने खड़ा होकर बोला, “सर, मैं अपना केस वापस लेता हूँ।”
दरोगा जी बोले, “तुम्हें अभी समझ में नहीं आ रहा है, लेकिन एक दिन जब तुम खुद बाप बनोगे, तब तुम्हें एहसास होगा कि तुमने अपने माता-पिता के साथ क्या किया है। अभी मैं तुम्हें अपने माँ-बाप को खुदकुशी के लिए उकसाने के आरोप में गिरफ्तार कर सकता हूँ, लेकिन…” इतना कहकर दरोगा जी वहाँ से चले गए, लेकिन उनकी बात वही अटकी रह गई—”लेकिन…”
रविकांत वहीं थर-थर काँपता रहा। उसकी पत्नी डिम्पल उसे उदासी से देख रही थी, और दोनों को दरोगा जी के ‘लेकिन’ का मतलब समझ नहीं आ रहा था
स्व लिखित मौलिक