पुकार
पुकार
मैंने तब पुकारा था तुम्हें
कि कब आओ गे कृष्ण
नहीं जानती थी
तुम नहीं आ सकते थे
क्योकि पुजारियों ने तुम्हे
बन्द कर रखा है
सुन्दर अलंकारो के साथ
मंहगे प्रस्तर भवनों में
पूरी आन बान और शान के साथ
खुद ताला लगा कर
नदारद हैं कहीं।
तुम डर कर दुबके हो
कि एक कंस का मुकाबला
किया जा सकता है
पर यहाँ कितने ही कंस
हो रहे हैं तैयार
अपनी सेना,कारिंदों प्यादों के साथ
यह द्वापर नहीं कलयुग है
हर तरह के नापाम बमों के साथ
मानव ने खुद ही तैयार कर लिए हैं
अपने विनाश के हथियार
नहीं छोड़ा
कर लिया उसने
प्रकृति का भी अपहरण
बेबस कर उसे
कर लिया उसका चीरहरण
क्रोधोन्मत हो अब
प्रकृति फुत्कार रही है
कही उगलती है आग
ज्वालामुखी-सी
कहीं उड़ा रही अग जग
प्रभंजन बन कर
कहीं डुबो रही
क़स्बे, शहर, गाँव
ऊँचे ऊँचे भवन
सागर में प्रलय-सी
तुम आओ गे
उंगली पर गोवर्धन
उठाने से कुछ नहीं होगा
एक कंस के वध से
कुछ नही होगा
अब तो सब निशाने पर है
धर्म,सभ्यता, संस्कृति
निरीह मानव के प्राण
आकाश का अस्तित्व
पृथ्वी का हर आयाम।
करना होगा हर अर्जुन तैयार
जो मिटा सके कौरवी अंधकार
लड़ना होगा महाभारत
तीर तलवार से नहीं
बनाना होगा जागरण हथियार
सारथी बन रथ रखो तैयार।
( समय का सच, काव्य संग्रह से)