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23 May 2021 · 1 min read

पी गया

घूँट भर में जमाने का डर पी गया।
मुस्कुराते हुए वो….जहर पी गया।

चन्द बूंदे मयस्सर……न रब को हुई,
वो जो अमृत कलश था शहर पी गया।

शर्तिया वो भी आदत से मजबूर था,
उसको पीना नहीं था मगर पी गया।

रख न पाये सलामत नमी साँझ तक,
ओस की नर्मियाँ…दो-पहर पी गया।

दीप बनके जमाने मे जलता मगर,
तेल, बाती का सारा अधर पी गया।

वो नशे में नहीं था मगर जाने क्यों,
गंगा-जल को सुरा मान-कर पी गया।

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