पीर
हम कबसे खड़े थे सहारे की तलाश में,
वो आज भी न आयीं पड़ोस की दुकान में।
मैं देखता रहा दिन, दोपहर, रात और जीवन ढल गई,
सनम फिर भी न आये औरों संग शमशान में।।
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उनकी चाहत में हम तो बेजार हो गये,
लोग कहते हैं मुझको बेकार हो गये।
आश उनकी थी जबतक था रौनक यहाँ,
आज लगता है उजड़े बाजार हो गये।।….
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…..पं.संजीव शुक्ल “सचिन”